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श्री अष्टक प्रकरण
१०. अथ वैराग्यष्टकम्
आर्त्तध्यानाख्यमेकं स्यान्मोहगर्भं तथाऽपरम् । सज्ज्ञानसङ्गतं चेति, वैराग्यं त्रिविधं स्मृतम् ॥१॥
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वैराग्य के तीन भेद हैं । १. आर्त्तध्यान २. मोहगर्भ और ३. सद्ज्ञानसंगत । अन्य शब्दों में १. दुःखगर्भित, २ . मोहगर्भित, और ३. ज्ञानगर्भित ।
केवल दुःख के कारण उत्पन्न हुआ वैराग्य दुःखगर्भित, मोह-अज्ञान दशा में उत्पन्न हुआ वैराग्य मोहगर्भित, और तात्त्विक ज्ञानपूर्वक उत्पन्न हुआ वैराग्य ज्ञानगर्भित ।
इष्टेतरवियोगादि-निमित्तं प्रायशो हि यत् । यथाशक्त्यपि हेयादावप्रवृत्त्यादिवर्जितम् ॥२॥
उद्वेगकृद्विषादाढ्य - मात्मघातादिकारणम् । आर्त्तध्यानं ह्यदो मुख्यं, वैराग्यं लोकतो मतम् ॥३॥
अर्थ - जो वैराग्य प्रायः इष्ट के वियोग और अनिष्ट के संयोग आदि दुःख से उत्पन्न होता हैं, वह दु:खगर्भित । इस वैराग्य से यथाशक्ति भी उपादेय में प्रवृत्ति और हेय से निवृत्ति (वास्तविक ) नहीं होती । यह वैराग्य उद्वेग और दीनता कराता हैं । आगे जाकर आत्महत्या का कारण भी बनता हैं । इससे परमार्थ से तो यह वैराग्य नहीं हैं, बल्कि आर्त्तध्यान ही हैं। अबुध लोग इसे वैराग्य कहते हैं, इसलिए
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