Book Title: Ashtak Prakaran
Author(s): Haribhadrasuri, 
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 22
________________ २१ श्री अष्टक प्रकरण अर्थ - अपने लिये चावल आदि तैयार होने के बाद 'यह मेरे लिए तैयार किया हैं, इसलिए मुनि के योग्य होने से उसका दान करके अपनी आत्मा को निर्मल करूँगा, इस प्रकार संकल्प करे तो वह संकल्प दुष्ट नहीं हैं। उससे पिंड दोषित नहीं बनता। कारण कि यह संकल्पदायक के शुभ भाव हैं। जैसे मुनि को प्रणाम करने आदि प्रवृत्ति से पिंड दूषित नहीं बनता, वैसे ही इस संकल्प से भी पिंड दूषित नहीं बनता।' दृष्टोऽसङ्कल्पितस्यापि, लाभ एवमसम्भवः । नोक्त इत्याप्ततासिद्धि - यतिधर्मोऽतिदुष्करः ॥८॥ अर्थ - असंकल्पित पिंड भी प्राप्त होता हैं । (कारण कि भिक्षुक का अभाव हो, रात्रि आदि में भिक्षा का अवसर न हो, जन्म-मरण का सूतक हो...इत्यादि प्रसंग पर दान देने योग्य न होने पर भी अपने लिये तो भोजन बनाते ही हैं। अर्थात् सद्गृहस्थ स्व-पर उभय के लिए ही रसोई बनाते हैं ऐसा नहीं हैं । गृहस्थ सामान्य रीति से अपने लिये रसोई बनाते हैं और कोई अर्थी आये तो उसको भिक्षा देते हैं । इससे पूर्व में वादी के द्वारा कहा गया था कि असंकल्पित पिंड असंभव हैं और सद्गृहस्थ के घर से भिक्षा नहीं ले सकते, इन दोनों दूषणों का अवकाश ही नहीं हैं। इसलिए शास्त्र के प्रणेता ने असंभवित वस्तु का प्रतिपादन नहीं किया होने से वे आप्त (विश्वसनीय) हैं । इस प्रकार सिद्ध होता हैं।

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