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श्री अष्टक प्रकरण
२०. अथ मैथुनदूषणाष्टकम्
रागादेव नियोगेन, मैथुनं जायते यतः । ततः कथं न दोषोऽत्र, येन शास्त्रे निषिध्यते ॥१॥
अर्थ - मैथुनसेवन राग से ही होता हैं। इससे मैथुन में दोष क्यों नहीं ? जिससे शास्त्र में मैथुन दोष का निषेध किया गया हैं।
धर्मार्थं पुत्रकामस्य, स्वदारेस्वधिकारिणः । ऋतुकाले विधानेन, यत्स्याद्दोषो न तत्र चेत् ॥२॥ नापवादिककल्पत्यान्नैकान्तेनत्यसङ्गतम् । वेदं ह्यधीत्य स्नायाद् यदधीत्यैवेति शासितम् ॥३॥ स्नायादेवेति न तु यत्, ततो हीनो गृहाश्रमः । तत्र चैतदतो न्यायात्, प्रशंसाऽस्य न युज्यते ॥४॥
अर्थ - धर्म के लिए पुत्र की इच्छावाला गृहस्थ ऋतुकाल में अपनी स्त्री के साथ स्मृति में कही हुई विधिपूर्वक मैथुन सेवन करे तो उसमें दोष नहीं है, ऐसा यदि तुम कहते हो तो वह ठीक नहीं हैं। ___'आपवादिककल्पत्वाद्' - कारण कि मैथुन सेवन आपवादिक क्रिया हैं । आपवादिक क्रिया निर्दोष नहीं होती। संकट में पड़ा हुआ मनुष्य अपवाद रूप में स्वमांस का या स्वपुत्र आदि का मांस सेवन करे तो वह निर्दोष नहीं