Book Title: Ashtak Prakaran
Author(s): Haribhadrasuri, 
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 17
________________ १६ श्री अष्टक प्रकरण ५. अथ भिक्षाष्टकम् सर्वसम्पत्करी चैका, पौरुषनी तथाऽपरा । वृत्तिभिक्षा च तत्त्वज्ञै - रिति भिक्षा त्रिधोदिता ॥ १ ॥ अर्थ - परमार्थ को जाननेवालों ने तीन प्रकार की भिक्षा कही हैं । १. सर्व संपत्करी - सर्व प्रकार की संपत्ति को देनेवाली । २. पौरुषघ्नी पुरुषार्थ का नाश करनेवाली । ३. वृत्तिभिक्षा - वृत्ति - आजीविका के लिए भिक्षा । यतिर्ध्यानादियुक्तो यो, गुर्वाज्ञायां व्यवस्थितः । सदानारम्भिणस्तस्य सर्वसम्पत्करी मता ॥२॥ " वृद्धाद्यर्थमसङ्गस्य, भ्रमरोपमयाऽटतः । गृहिदेहोपकाराय, विहितेति शुभाशयात् ॥३॥ अर्थ - १. ध्यान, ज्ञान आदि में तत्पर (ध्यान अभ्यंतर तप की क्रिया हैं । इसलिए यहाँ क्रिया और ज्ञान इन दोनों को ग्रहण किया गया हैं ।) २. सदा गुरु - आज्ञाकारी । ३. सदा आरंभ से रहित । ४. ( स्व का लक्ष्य कम कर) वृद्ध, बाल, ग्लान आदि के लिए भिक्षा लेनेवाला । ५. शब्दादि विषयों में अनासक्त ६. भ्रमर के समान भिक्षा लेनेवाला । ७. गृहस्थ के ( और स्वशरीर के) उपकार के आशय से भिक्षा के लिए भ्रमण करनेवाला । इस प्रकार के यति की भिक्षा सर्वसम्पत्करी भिक्षा हैं

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