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श्री अष्टक प्रकरण
९. अथ ज्ञानाष्टकम्
विषयप्रतिभासं चात्मपरिणतिमत्तथा । तत्त्वसंवेदनं चैव ज्ञानमाहुमहर्षयः ॥१॥
महर्षियों ने ज्ञान तीन प्रकार के कहे हैं । १. विषय प्रतिभास २. आत्मपरिणतिमत् और ३. तत्त्वसंवेदन ।
हेयोपादेय आदि के तात्त्विक विवेक के बिना, बालक के समान मात्र विषय का प्रतिभास (ज्ञान) वह विषयप्रतिभास । हेयोपादेय आदि को तात्त्विक विवेकपूर्वक की प्रवृत्ति-निवृत्ति से रहित ज्ञान आत्मपरिणतिमत् । हेयोपादेय आदि का तात्त्विक विवेकपूर्वक हेय से निवृत्ति और उपादेय में प्रवृत्ति करनेवाला ज्ञान तत्त्वसंवेदन । विषय-प्रतिभास मिथ्यादृष्टि को, आत्मपरिणतिमत् सम्यग्दृष्टि को, तत्त्वसंवेदन विशुद्ध चारित्रवाले साधु को होता हैं । [देशविरति श्रावक को मुख्यतया आत्मपरिणतिमत् तथा गौणता से तत्त्वसंवेदन ज्ञान होता हैं।]
विषकण्टकरत्नादौ, बालादि-प्रतिभासवत् । विषयप्रतिभासं स्यात्, तद्धेयत्वाद्यवेदकम् ॥२॥
अर्थ - बालक अथवा अतिमुग्ध जीव के विष, कंटक, रत्न आदि के ज्ञान के समान हेय, उपादेय और उपेक्षणीय के निश्चय से रहित ज्ञान विषयप्रतिभास ज्ञान हैं।