Book Title: Ashtak Prakaran
Author(s): Haribhadrasuri, 
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 91
________________ श्री अष्टक प्रकरण अर्थ स्व- शरीर का मांस भक्षण करनेवाला शेर आदि अथवा प्रहार आदि करनेवाला दुर्जन आदि अपकारी कर्मक्षय में सहायक होते हुए मोक्ष को प्राप्त करानेवाला होने से अपकारी के संबंध में 'इसमें यह ठीक किया, यह अच्छा हैं,' इस प्रकार सद्बुद्धि परमार्थ से शुभ नहीं हैं । कारण कि उसमें केवल स्वार्थ विद्यमान हैं । अयोग्य करने से इसको कैसे-कैसे दुःख भोगने पडेंगे, इसका जरा भी विचार नहीं किया । ९० — एवं सामायिकादन्य- दवस्थान्तरभद्रकम् । स्याच्चित्तं तत्तु संशुद्धे - ज्ञेयमेकान्तभद्रकम् ॥८ ॥ अर्थ - इस प्रकार बुद्धपरिकल्पित और जैनपरिकल्पित चित्त समभाव से अन्य अवस्था में सराग अवस्था कुशल में हितकर हैं । किन्तु सामायिक तो समस्त दोषों से रहित होने से एकांत से शुभ हैं I -

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