Book Title: Ashtak Prakaran
Author(s): Haribhadrasuri, 
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 27
________________ २६ श्री अष्टक प्रकरण अभव्य भी प्रत्याख्यान करते हैं । किन्तु वह प्रत्याख्यान अकिंचित्-अवस्तु-अपारमार्थिक हैं । इससे जैनशासन में अपेक्षा की निंदा की गयी हैं । यथैवाविधिना लोके, न विद्याग्रहणादि यत् । विपयर्यफलत्वेन, तथेदमपि भाव्यताम् ॥४॥ अर्थ - जैसे लोक में विद्या-ग्रहण आदि जो कोई अविधि से करे तो फल की प्राप्ति नहीं होती, बल्कि विपरीत फल ( मन की अस्थिरता, मरण आदि) भी प्राप्त होते हैं, वैसे अविधि से किये जाने वाले प्रत्याख्यान के बारे में भी समझना । अक्षयोपशमात्त्याग - परिणामे तथाऽसति । जिनाज्ञाभक्तिसंवेग - वैकल्पादेतदप्यसत् ॥५॥ अर्थ - प्रत्याख्यान को रोकनेवाले कर्म के क्षयोपशम के अभाव में त्याग के परिणाम न होने पर भी स्वीकार किया गया प्रत्याख्यान द्रव्य प्रत्याख्यान हैं । कारण कि जिनाज्ञा के संबंध में बहुमान तथा संवेग (मोक्षाभिलाषा) का अभाव हैं । अविधि प्रत्याख्यान के समान अपरिणाम प्रत्याख्यान भी असत्- अतात्त्विक हैं । | उदग्रवीर्यविरहात्, क्लिष्टकर्मोदयेन यत् । बाध्यते तदपि द्रव्य - प्रत्याख्यानं प्रकीर्त्तितम् ॥६॥ अर्थ - पूर्व में स्वीकारा गया जो प्रत्याख्यान तीव्र

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