Book Title: Ashtak Prakaran
Author(s): Haribhadrasuri, 
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 76
________________ श्री अष्टक प्रकरण ७५ गेहाद् गेहान्तरं कश्चिदशुभादितरन्नरः । याति यद्वत्सुधर्मेण, तद्वदेव भवाद् भवम् ॥४॥ अर्थ - जैसे कोई मनुष्य खराब घर से अन्य अच्छे घर में जाता हैं, वैसे ही जीव पुण्यानुबंधी पाप के उदय से तिर्यंच आदि अशुभ भव से मनुष्यादि शुभ भव में जाता हैं । पाप के उदय के समय समता रखने से (कर्म निर्जरा और) पुण्यबंध होता हैं। इससे यह पाप पुण्यानुबंधी बनता हैं। शुभानुबन्ध्यतः पुण्यं, कर्तव्यं सर्वथा नरैः । यत्प्रभावादपातिन्यो, जायन्ते सर्वसम्पदः ॥५॥ अर्थ - इस कारण से मनुष्यों को सर्वथा (जो-जो उपाय हो उन सब उपायों से) पुण्यानुबंधी पुण्य करना चाहिए । इस पुण्य के प्रताप से सर्व संपत्तियाँ अविनश्वर बनती हैं। सदागमविशुद्धेन, क्रियते तच्च चेतसा । एतच्च ज्ञानवृद्धेभ्यो, जायते नान्यतः क्वचित् ॥६॥ अर्थ - पुण्यानुबंधी पुण्य सत्य आगम से विशुद्ध ऐसे चित्त से किया जाता हैं, और सत्य आगम से विशुद्ध चित्त ज्ञान-वृद्धों से होता हैं, अन्य किसी कारण से नहीं । चित्तरत्नमसङ्क्लिष्ट - मान्तरं धनमुच्यते । यस्य तन्मुषितं दोषैस्तस्य शिष्टा विपत्तयः ॥७॥ अर्थ - राग आदि संक्लेशों से रहित चित्त रूप रत्न

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