Book Title: Ashtak Prakaran
Author(s): Haribhadrasuri, 
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 24
________________ श्री अष्टक प्रकरण २३ अर्थ - अरे ! दयालु जीव, गरीब वगैरह को मांगने पर भी नहीं दे ऐसा कैसो हो सकता हैं ! दयालु जीव का स्वभाव ही ऐसा होता हैं कि वह प्राय: कभी भी मांगने वाले गरीब आदि को दिये बिना शांति से नहीं बैठ सकता । पुण्यबंध के भय से मन को दृढ़ करके भोजन नहीं दे तो दीन आदि को अवश्य अप्रीति उत्पन्न होगी, इससे शासन पर द्वेष उत्पन्न होगा, परिणाम स्वरूप नरक आदि कुगति की परंपरा का सृजन होगा । निमित्तभावतस्तस्य सत्युपाये प्रमादतः । शास्त्रार्थबाधनेनेह पापबन्ध उदाहृतः ॥६॥ I अर्थ दीन आदि की अप्रीति इत्यादि दोषों को टालने का गुप्त भोजन उपाय होने पर भी प्रमाद से अगुप्त भोजन करनेवाला मुनि दीनादि की अप्रीति आदि दोषों में निमित्त बनता हैं | इससे शास्त्र के अर्थ का अनर्थ होता हैं । शास्त्र की आज्ञा का लोप होता हैं । दूसरों को अप्रीति आदि न हो ऐसा व्यवहार करना, यह शास्त्राज्ञा हैं । प्रकट भोजन करने से उक्त शास्त्राज्ञा का खंडन होता हैं । इससे मुनि को पापबंध (अशुभकर्मबंध ) होता हैं । — शास्त्रार्थश्च प्रयत्नेन, यथाशक्ति मुमुक्षुणा । अन्यव्यापारशून्येन, कर्तव्यः सर्वदैव हि ॥७॥ अर्थ - मुमुक्षु (मोक्ष इच्छुक ) को लोकप्रवाह आदि

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