Book Title: Ashtak Prakaran
Author(s): Haribhadrasuri, 
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 71
________________ ७० श्री अष्टक प्रकरण २३. अथ शासनमालिन्यवर्जनाष्टकम् यः शासनस्य मालिन्येऽनाभोगेनापि वर्त्तते । स तन्मिथ्यात्वहेतुत्वादन्येषां प्राणिनां ध्रुवम् ॥१॥ बध्नात्यपि तदेवालं, परं संसारकारणम् । विपाकदारुणं घोरं, सर्वानर्थविवर्धनम् ॥२॥ अर्थ - जो अन्जाने में भी जैनशासन की अवहेलना हो ऐसी प्रवृत्ति करता हैं, वह जैनशासन की अवहेलना के द्वारा अवश्य अन्य - ( अवहेलना करनेवाले) प्राणियों के मिथ्यात्व का कारण बनता हैं । अर्थात् जैनशासन के बारे में विपरीत समझ उत्पन्न करता हैं । इससे स्वयं भी संसार का कारण, विपाक में दारुण, सर्व अनर्थों को बढानेवाला, ऐसा प्रकृष्ट मिथ्यात्व मोहनीय कर्म को (अत्यंत निकाचित आदि) बांधता हैं । यस्तून्नतौ यथाशक्ति, सोऽपि सम्यक्त्वहेतुताम् । अन्येषां प्रतिपद्येह, तदेवाप्नोत्यनुत्तरम् ॥३॥ प्रक्षीणतीव्रसङ्केलं, प्रशमादिगुणान्वितम् । निमित्तं सर्वसौख्यानां, तथा सिद्धिसुखावहम् ॥४॥ अर्थ - जो जैनशासन की उन्नति हो, वैसी प्रवृत्ति यथाशक्ति करता हैं, वह अन्य प्राणियों के सम्यक्त्व में निमित्त बनकर स्वयं भी अनंतानुबंधी कषाय के उदयरूप तीव्र संक्लेश से अत्यंत रहित, प्रशमादि गुणों से युक्त, सर्व

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