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श्री अष्टक प्रकरण
२७. अथ तीर्थकृद्दानसफलतासिद्ध्यष्टकम्
कश्चिदाहाऽस्य दानेन, क इवार्थः प्रसिध्यति । मोक्षगामी ध्रुवं ह्येष, यतस्तेनैव जन्मना ॥१॥
अर्थ - दान से तीर्थंकर का कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होता । तीर्थंकर उसी भव में मोक्ष में जानेवाले होने से मोक्ष-प्रयोजन भी सिद्ध नहीं होता । इस प्रकार कोई वादी कहता हैं |
उच्यते कल्प एवाऽस्य, तीर्थकृन्नामकर्मणः । उदयात्सर्वसत्त्वानां हित एव प्रवर्त्तते ॥२॥ धर्माङ्गख्यापनार्थं च, दानस्यापि महामतिः । अवस्थौचित्ययोगेन, सर्वस्यैवानुकम्पया ॥ ३ ॥
अर्थ - तीर्थंकर नामकर्म के उदय से सर्व जीवों के हित के लिए ही प्रवृत्ति करने का तीर्थंकरो का कल्पआचार होने से, वे दान करते हैं, न कि किसी फल की आशा से । तथा स्व-स्व भूमिका के अनुसार अनुकंपा - कृपा से दान करना । यह भी गृहस्थ या साधु सर्व जीवों का धर्म हैं । दान भी धर्म का अंग हैं यह बताने के लिए महामति तीर्थंकर दान देते है ।
शुभाशयकरं ह्येत - दाऽऽग्रहच्छेदकारि च । सदभ्युदयसाराङ्ग - मनुकम्पाप्रसूति च ॥४॥