Book Title: Ashtak Prakaran
Author(s): Haribhadrasuri, 
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

View full book text
Previous | Next

Page 100
________________ श्री अष्टक प्रकरण ९९ से मैथुन आदि विषय सेवन भी निरर्थक हैं । खुजली की जरूरत किसे होगी ? जिसको खुजलाना हो उसे ही ना ? जैसे खुजली के अभाव में खुजलाने की जरूरत नहीं हैं, वैसे ही सिद्धों को मोह का अभाव होने से विषयसेवन की भी जरूरत नहीं । अपरायत्तमोत्सुक्य - रहितं निष्प्रतिक्रियम् । सुखं स्वाभाविकं तत्र, नित्यं भयवर्जितम् ॥७॥ अर्थ - मोक्ष में स्वाधीन, औत्सुक्य (इच्छा) से रहित, दुःखप्रतिकार की क्रिया से रहित, विनाश के भय से रहित, नित्य और स्वाभाविक (अनंतज्ञानादि चतुष्टय रूप) सुख होता हैं । परमानन्दरूपं तद्, गीयतेऽन्यैर्विचक्षणैः । इत्थं सकलकल्याण रूपत्वात्साम्प्रतं ह्यदः ॥८ ॥ अर्थ - जैनेतर विद्वान मोक्षसुख को परमानंद रूप कहते हैं । इस प्रकार संपूर्ण सुख स्वरूप होने से मोक्ष - सुख ही युक्त (वास्तविक) सुख हैं । — संवेद्यं योगिनामेत - दन्येषां श्रुतिगोचरः । उपमाऽभावतो व्यक्त - मभिधातुं न शक्यते ॥९॥ अर्थ - मोक्ष - सुख का अनुभव केवली (सिद्ध)

Loading...

Page Navigation
1 ... 98 99 100 101 102