Book Title: Ashtak Prakaran
Author(s): Haribhadrasuri, 
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 52
________________ श्री अष्टक प्रकरण ५१ १४ श्लोक ५-६ में) धर्म से ऊर्ध्वगति होती हैं इत्यादि शास्त्रवचन औपचारिक सिद्ध हो रहा था, यह सब आत्मा संकोच-विकासशील और देहप्रमाण हो तो यथार्थ निरुपचरित सिद्ध होता हैं । विचार्यमेतत् सद्बुद्ध्या, मध्यस्थेनान्तरात्मना । प्रतिपत्तव्यमेवेति, न खल्वन्यः सतां नयः ॥ ८ ॥ — अर्थ - यहाँ अहिंसा आदि का जो विचार किया गया हैं, उसका अंतरात्मा के द्वारा मध्यस्थ बनकर सूक्ष्म बुद्धि से विचार करना चाहिए और उसका स्वीकार करना चाहिए । विचार करने पर जो वस्तु सत्य लगे उसका स्वीकार करना, यह सज्जन पुरुषों की नीति हैं ।

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