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श्री अष्टक प्रकरण
३० अथ केवलज्ञानाष्टकम्
सामायिकविशुद्धात्मा, सर्वथा घातिकर्मणः । क्षयात्केवलमाप्नोति, लोकालोकप्रकाशकम् ॥१॥ अर्थ - सामायिक से विशुद्ध आत्मा घाती कर्मों के सर्वथा क्षय होने पर लोकालोकप्रकाशक केवलज्ञान केवलदर्शन को प्राप्त करती हैं ।
ज्ञाने तपसि चारित्रे, सत्येवास्योपजायते । विशुद्धिस्तदतस्तस्य, तथाप्राप्तिरिष्यते ॥२॥
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अर्थ - ज्ञान, तप और चारित्र ये तीन हों तो ही आत्मा की विशुद्धि होती हैं, (ये तीन सामायिक स्वरूप हैं) इसलिए सामायिक से हुई जीव - विशुद्धि से घाती कर्मों का क्षय होते ही केवलज्ञान की प्राप्ति मान्य हैं ।
आत्मनस्तत्स्वभावत्वाल्लोकालोकप्रकाशकम् ।
अत एव तदुत्पत्ति समयेऽपि यथोदितम् ॥४॥
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स्वरूपमात्मनो ह्येतत्, किन्त्वनादिमलावृतम् । जात्यरत्नांशुवत्तस्य, क्षयात्स्यात्तदुपायतः ॥३॥ अर्थ - केवलज्ञान आत्मा का स्वरूप (स्वभाव) ही हैं । किन्तु खान में रहे हुए भव्य रत्न की किरणों की तरह अनादि कर्म-मल से ढंका हुआ हैं । उपाय (सामायिक) से अनादि कर्ममल के क्षय होते ही केवलज्ञान प्रकट होता हैं ।
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