Book Title: Ashtak Prakaran
Author(s): Haribhadrasuri, 
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 90
________________ श्री अष्टक प्रकरण मय्येव निपतत्वेतज्जगद्दुश्चरितं यथा । मत्सुचरितयोगाच्च मुक्तिः स्यात्सर्वदेहिनाम् ॥४॥ अर्थ - जगत के सभी प्राणियों का यह (-प्रत्यक्ष दिखाई देनेवाला) दुश्चरित मेरी आत्मा में ही आ पड़े और मेरे सुचारित्र से सभी प्राणियों की मुक्ति हो । असम्भवीदं यद्वस्तु, बुद्धानां निर्वृतिश्रुतेः । सम्भवित्ये त्वियं न स्यात्, तत्रैकस्याऽप्यनिर्वृतौ ॥५॥ अर्थ - किसी का दुश्चरित्र किसी में आ पड़े और अन्य के सच्चरित्र से जगत के सभी जीव मुक्ति पायें, यह वस्तु असंभवित हैं। कारण कि अनेक बुद्ध मुक्ति को प्राप्त हुए हैं । यदि यह वस्तु संभवित हो तो जगत में एक भी बुद्धजीव की मुक्ति न होने से इन अनेक बुद्धों की मुक्ति नहीं होगी। तदेवं चिन्तनं न्यायात्, तत्त्वतो मोह-सङ्गतम् । साध्ववस्थान्तरे ज्ञेयं, बोध्यादेः प्रार्थनादिवत् ॥६॥ अर्थ - उपर्युक्त न्याय की दृष्टि से उक्त चिन्तन (भावना) परमार्थ से मोहसंगत – मोह अवस्था में होनेवाला हैं । इससे यह चिन्तन सराग अवस्था में बोधि आदि की प्रार्थना के समान शुभ (लाभकारी) हैं। अपकारिणी सद्बुद्धि - विशिष्टार्थप्रसाधनात् । आत्मम्भरित्वपिशुना तदपायनपेक्षिणी ॥७॥

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