Book Title: Ashtak Prakaran
Author(s): Haribhadrasuri, 
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 50
________________ श्री अष्टक प्रकरण १६. अथ नित्यानित्यपक्षमण्डनाष्टकम् ४९ नित्यानित्ये तथा देहाद्, भिन्नाभिन्ने च तत्त्वतः । घटन्त आत्मनि न्यायाद्विसादीन्यविरोधतः ॥१॥ अर्थ - आत्मा को नित्यानित्य तथा देह से भिन्नाभिन्न मानें तो किसी भी प्रकार के विरोध (दोष) के बिना न्याय - पूर्वक हिंसादि परमार्थ से माने जाते हैं । पीडाकर्तृत्वयोगेन, देहव्यापत्त्यपेक्षया । तथा हन्मीति सङ्क्लेशाद्धिसैषा सनिबन्धना ॥ २ ॥ अर्थ - पीडा उत्पन्न करने से, शरीर का नाश करने से और 'मैं जीव को मार रहा हूँ' इस प्रकार की कलुषता से यह हिंसा सकारण हैं। (एकांतवाद में पूर्व में कहे अनुसार पीड़ा की उत्पत्ति आदि लागू न होने से हिंसा कारण-रहित हैं। हिंस्यकर्मविपाकेऽपि, निमित्तत्वनियोगतः । हिंसकस्य भवेदेषा, दुष्टा दुष्टानुबन्धतः ॥३॥ अर्थ - हिंस्य जीव के कर्म के उदय से हिंसा होती हुई होने पर भी मारनेवाला उसमें निमित्त बनने से उसको हिंसा लगती हैं। चित्त की कलुषतता के कारण यह हिंसा दुष्ट हैं । [ इससे निमित्त बनने मात्र से हिंसा नहीं लगती, किन्तु चित्त का संक्लेशपूर्वक हिंसा में निमित्त बनने से हिंसा लगती हैं इससे ईर्यासमिति पूर्वक चलते हुए साधु के पैर के नीचे

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