Book Title: Ashtak Prakaran
Author(s): Haribhadrasuri, 
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

View full book text
Previous | Next

Page 72
________________ श्री अष्टक प्रकरण प्रकार के सुखों का कारण, मोक्ष को प्राप्त करानेवाला, अनुत्तर ( क्षायिक) सम्यक्त्व प्राप्त करता हैं । अतः सर्वयत्नेन, मालिन्यं शासनस्य तु । प्रेक्षावता न कर्तव्यं, प्रधानं पापसाधनम् ॥५॥ अर्थ - इससे बुद्धिमान पुरुष को संपूर्ण प्रयत्न से किसी भी प्रकार से शासन - मालिन्य नहीं करना चाहिए, कारण कि शासनमालिन्य पाप का अशुभ कर्म का मुख्य कारण हैं । - ७१ अस्माच्छासनमालिन्याज्जातौ जातौ विगर्हितम् । प्रधानभावादात्मानं, सदा दूरीकरोत्यलम् ॥६॥ अर्थ - इस शासनमालिन्य से प्रत्येक भव में हीन जाति आदि में उत्पन्न होने से अत्यंत निन्दित स्वयं की आत्मा को संसार-सुख, संपत्ति, स्वजन आदि के प्रभुत्व से सदा अत्यंत दूर करता हैं । कर्तव्या चोन्नतिः सत्यां शक्ताविह नियोगतः । अवन्ध्यं बीजमेषा यत्, तत्त्वतः सर्वसम्पदाम् ॥७॥ अर्थ - किसी भी प्रकार से शासन की अवहेलना का त्याग करना ही चाहिए और शक्ति हो तो जैनशासन की उन्नति करनी चाहिए । कारण कि परमार्थ से शासनप्रभावना सर्व प्रकार की संपत्तियों का अमोघ उपाय हैं ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102