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श्री अष्टक प्रकरण
प्रकार के सुखों का कारण, मोक्ष को प्राप्त करानेवाला, अनुत्तर ( क्षायिक) सम्यक्त्व प्राप्त करता हैं ।
अतः सर्वयत्नेन, मालिन्यं शासनस्य तु । प्रेक्षावता न कर्तव्यं, प्रधानं पापसाधनम् ॥५॥
अर्थ - इससे बुद्धिमान पुरुष को संपूर्ण प्रयत्न से किसी भी प्रकार से शासन - मालिन्य नहीं करना चाहिए, कारण कि शासनमालिन्य पाप का अशुभ कर्म का मुख्य
कारण हैं ।
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अस्माच्छासनमालिन्याज्जातौ जातौ विगर्हितम् । प्रधानभावादात्मानं, सदा दूरीकरोत्यलम् ॥६॥
अर्थ - इस शासनमालिन्य से प्रत्येक भव में हीन जाति आदि में उत्पन्न होने से अत्यंत निन्दित स्वयं की आत्मा को संसार-सुख, संपत्ति, स्वजन आदि के प्रभुत्व से सदा अत्यंत दूर करता हैं ।
कर्तव्या चोन्नतिः सत्यां शक्ताविह नियोगतः । अवन्ध्यं बीजमेषा यत्, तत्त्वतः सर्वसम्पदाम् ॥७॥
अर्थ - किसी भी प्रकार से शासन की अवहेलना का त्याग करना ही चाहिए और शक्ति हो तो जैनशासन की उन्नति करनी चाहिए । कारण कि परमार्थ से शासनप्रभावना सर्व प्रकार की संपत्तियों का अमोघ उपाय हैं ।