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श्री अष्टक प्रकरण
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६. अथ सर्वसम्पत्करी भिक्षाष्टकम्
अकृतोऽकारितश्चान्यै - रसंकल्पित एव च । यतेः पिण्डः समाख्यातो, विशुद्धः शुद्धिकारकः ॥१॥
अर्थ - जो आहार स्वयं ने बनाया न हो, अन्य के पास बनवाया न हो तथा 'यह साधु को दूँगा' ऐसे दान के संकल्प से रहित हो, ऐसा ही पिंड मुनि के लिए विशुद्ध कहा गया हैं। ऐसा विशुद्ध पिंड आत्मा की शुद्धि करनेवाला हैं ।
यो न संकल्पितं पूर्वं, देयबुद्ध्या कथं नु तम् । ददाति कश्चिदेवं च स विशुद्धो वृथोदितम् ॥२॥
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अर्थ - जो पिंड देने की बुद्धि से पूर्व में संकल्पित नहीं हैं उसे कोई भी व्यक्ति किस प्रकार देगा ? अर्थात् नहीं देगा । अतः जो कहा गया कि 'असंकल्पित पिंड विशुद्ध हैं, वह निरर्थक हैं ।
न चैवं सद्गृहस्थानां, भिक्षा ग्राह्या गृहेषु यत् । स्वपरार्थं तु ते यत्नं कुर्वते नान्यथा क्वचित् ॥३॥
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अर्थ - असंकल्पित पिंड का असंभव उतना नहीं, कि सद्गृहस्थों के घरों में से भिक्षा भी नहीं ली जा सकती । कारण कि वे स्व-पर यानी उभय के लिए रसोई बनाते हैं । केवल अपने लिए कभी भी रसोई नहीं बनाते । सङ्कल्पनं विशेषेण, यत्रासौ दुष्ट इत्यपि । परिहारो न सम्यक् स्याद् यावदर्थिकवादिनः ॥४॥