Book Title: Ashtak Prakaran
Author(s): Haribhadrasuri, 
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 16
________________ श्री अष्टक प्रकरण १५ शरीर को कीचड़ से गंदा नहीं करना, यही श्रेष्ठ हैं । धन प्राप्त करने में पाप लगता हैं । इससे प्राप्त धन के व्यय से उस पाप की शुद्धि करनी पड़ती हैं। इस प्रकार आगे जाकर फिर से पीछे गिरना पड़ता हैं। इससे तो यही उत्तम हैं कि पाप करानेवाले धन को प्राप्त करने का प्रयत्न ही नहीं करना चाहिए, जिससे पाप की शुद्धि करनी न पड़े। मोक्षाध्यसेवया चैताः, प्रायः शुभतरा भुवि । जायन्ते ह्यनपायिन्य इयं सच्छास्त्रसंस्थितिः ॥७॥ अर्थ - द्रव्य अग्निकारिका से प्राप्त संपत्ति की अपेक्षा प्रायः मोक्षमार्ग (सम्यग्ज्ञान, दर्शन, चारित्र) की साधना से अधिक शुभ संपत्ति प्राप्त होती हैं। तथा यह संपत्ति विघ्नों से रहित होती हैं । आप्त आगम का यह अटल नियम हैं। इष्टापूर्तं न मोक्षाङ्गं, सकामस्योपवर्णितम् । अकामस्य पुनर्योक्ता, सैव न्याय्याग्निकारिका ॥८॥ अर्थ – इष्टापूर्त मोक्ष का कारण नहीं हैं, यह तो अपने सिद्धान्त में ही कहा गया हैं । कारण कि स्वर्ग आदि सांसारिक सुख की कामनावाले के लिए इष्टापूर्त का विधान हैं । मोक्ष की इच्छावाला तो पूर्व में कथित भाव अग्निकारिका का ही सेवन करे यही युक्तियुक्त हैं।

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