Book Title: Ashtak Prakaran
Author(s): Haribhadrasuri, 
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 63
________________ ६२ श्री अष्टक प्रकरण माना जाता । न चले तो निषिद्ध वस्तु का भी अपवाद से सेवन करे । किन्तु अपवाद से सेवन करने पर वह वस्तु निर्दोष नहीं बन जाती । अतः मैथुनसेवन भी अपवाद से करना चाहिए । मैथुन स्वरूप से तो दोषित ही हैं । इससे नैकान्तेनेत्यसंगतम् ‘मैथुन में सर्वथा दोष नहीं हैं', ऐसा कहना असंगत हैं । वेद की व्याख्या करनेवालों ने वेद पढ़कर (मैथुन सेवन के लिए) स्नान करे, इस वाक्य का वेद पढ़कर ही (मैथुन सेवन के लिए) स्नान करे ऐसा अर्थ किया हैं । किन्तु वेद पढ़कर (मैथुनसेवन के लिए) स्नान करे ही ऐसा अर्थ नहीं किया। यहां 'वेद पढ़कर ही' इस प्रकार वेद पठन के ऊपर जोर दिया हैं, नहीं कि मैथुनसेवन पर । इसका अर्थ यह हुआ कि - मैथुनसेवन के बिना न चले तो वेद पढ़कर ही मैथुनसेवन करे । मैथुन सेवन करना नहीं और यदि करना पड़े तो भी वेद पढ़े बिना तो कदापि नहीं करना । इससे (यति आश्रम की अपेक्षा से) गृहस्थाश्रम हीन कक्षा का हैं । तत्र चैतद् - गृहस्थाश्रम में मैथुन संभवित हैं । इससे न्याय की दृष्टि से मैथुन की प्रशंसा योग्य नहीं हैं । अदोषकीर्तनादेव, प्रशंसा चेत् कथं भवेत् । अर्थापत्त्या सदोषस्य, दोषाभाव - प्रकीर्तनात् ॥५॥ अर्थ - 'न च मैथुने' इस वचन से मैथुन में दोष का अभाव कहे जाने से मैथुन की प्रशंसा योग्य हैं, ऐसा मानना

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