Book Title: Ashtak Prakaran
Author(s): Haribhadrasuri, 
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 42
________________ ४१ श्री अष्टक प्रकरण धर्मार्थिभिः प्रमाणादे-लक्षणं न तु युक्तिमत् । प्रयोजनाद्यभावेन, तथा चाह महामतिः ॥४॥ अर्थ - प्रत्यक्ष आदि प्रमाण के और आत्मादि प्रमेय के लक्षण की चर्चा युक्तियुक्त नहीं हैं। कारण कि इसका कोई प्रयोजन नहीं हैं । तथा अमुक वस्तु का अमुक ही लक्षण हैं ऐसा निर्णय करने के लिए उपाय भी नहीं हैं। महान बुद्धिशाली श्री सिद्धसेन सूरि भी ऐसा ही कहते हैं। प्रसिद्धानि प्रमाणानि, व्यवहारश्च तत्कृतः । प्रमाणलक्षणस्योक्तौ, ज्ञायते न प्रयोजनम् ॥५॥ अर्थ - प्रत्यक्ष आदि प्रमाण लोक में स्वतः (उपदेश के बिना) प्रसिद्ध हैं । और प्रमाण से किया हुआ व्यवहार भी प्रसिद्ध हैं । इससे प्रमाण का लक्षण जानने में कोई प्रयोजन नहीं दिखाई देता । प्रमाणेन विनिश्चित्य, तदुच्यते न वा ननु । अलक्षितात् कथं युक्ता, न्यायतोऽस्य विनिश्चितेः ॥६॥ सत्यां चास्यां तदुक्त्या किं, तद्वद् विषयनिश्चितेः । तत एवाऽविनिश्चित्य, तस्योक्तिया॑न्ध्यमेव हि ॥७॥ अर्थ - अमुक प्रमाण का अमुक लक्षण हैं इस प्रकार प्रमाण को लक्षण (जिस प्रमाण का लक्षण कहना हैं, उस प्रमाण से अन्य कोई) प्रत्यक्ष आदि प्रमाण से निर्णय करके कहा जाता हैं अथवा निर्णय किये बिना ?

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