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श्री अष्टक प्रकरण महात्माओं को परमार्थ से दुष्ट जानना । कारण कि उस अभिग्रह में 'यदि कोई साधु ग्लान हो तो अच्छा, जिससे मेरा अभिग्रह सफल हो,' ऐसा साधुओं की बीमारी का आशय होने से वह कर्मबंध का हेतु बनता हैं ।
लौकिकैरपि चैषोऽर्थो दृष्टः सूक्ष्मार्थदर्शिभिः । प्रकारान्तरतः कैश्चि-दत एतदुदाहृतम् ॥५॥ अङ्गेष्वेव जरां यातु, यत्त्वयोपकृतं मम । नरः प्रत्युपकाराय विपत्सु लभते फलम् ॥६॥
अर्थ - कुछ विद्वानों का भी इस अर्थ का - अज्ञानता से, धर्मबुद्धि से होनेवाले धर्मव्याघात का ज्ञान हैं। इससे उन्होंने निम्नानुसार कहा हैं ।
(राम तारा को...प्राप्त करता है ।) एवं विरुद्धदानादौ, हीनोत्तमगतेः सदा । प्रव्रज्यादिविधाने च, शास्त्रोक्तन्यायबाधिते ॥७॥ द्रव्यादिभेदतो ज्ञेयो, धर्मव्याघात एव हि। सम्यग्माध्यस्थ्यमालम्ब्य, श्रुतधर्मव्यपेक्षया ॥८॥
अर्थ - इस प्रकार सदा शास्त्रविरुद्ध दानादि में तथा शास्त्रोक्त विधि से रहित प्रव्रज्यादि करने में हीनोत्तमगतेः - अनुचित को उचित जानने से द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव को आश्रय कर धर्मव्याघात ही हैं । इस धर्मव्याघात को माध्यस्थ बनाकर आगम के अनुसार अच्छी तरह जानना ।