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श्री अष्टक प्रकरण
विषयो वास्य वक्तव्यः, पुण्यार्थं प्रकृतस्य च । असम्भवाभिधानात् स्या- दाप्तस्यानाप्ततान्यथा ॥ ५ ॥
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अर्थ - जिस पिंड में अमुक ही भिक्षुक को देना ऐसा विशेष संकल्प किया जाए, वही पिंड दूषित हैं ऐसा बचाव नहीं कर सकते। कारण कि तुम्हारे शास्त्र में यावदर्थिक पिंड - किसी भी भिक्षुक के संकल्प से बनाया हुआ पिंड यति को नहीं कल्पता ऐसा विधान हैं। विषयो वास्य वक्तव्यः फिर भी यदि तुमको बचाव करना ही है तो किसी भी भिक्षु के संकल्प से बनाया गया पिंड नहीं कल्पता ऐसा नहीं कहना चाहिए । किन्तु अमुक-अमुक भिक्षु के लिए बनाया गया पिंड नहीं कल्पता इसकी स्पष्टता करनी चाहिए ।
विभिन्नं देयमाश्रित्य, स्वभोग्याद्यत्र वस्तुनि । सङ्कल्पनं क्रियाकाले, तद् दुष्टं विषयोऽनयोः ॥६॥ अर्थ - रसोई बनाते समय अपने खाने के पिंड से अलग पिंड के विषय में इतना अर्थी के लिए, इतना पुण्य के लिए इस प्रकार संकल्प किया जाए तो वह संकल्प दोष-युक्त हैं । यह संकल्प यावदर्थिक और पुण्यार्थकृत पिंड का विषय हैं, अर्थात् ऐसे संकल्प से युक्त दोनों प्रकार के पिंड यति के लिए त्याज्य हैं ।
स्वोचिते तु यदारम्भे, तथा सङ्कल्पनं क्वचित् । न दुष्टं शुभभावत्वात्, तच्छुद्धापरयोगवत् ॥७॥