Book Title: Ashtak Prakaran
Author(s): Haribhadrasuri, 
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 36
________________ श्री अष्टक प्रकरण ३५ इस प्रकार (जो दुःखी वह तपस्वी ) ऐसी तुम्हारी नीति से नारी आदि महातपस्वी कहे जायेंगे। योगी समता के सुख में मग्न होने से तपस्वी नहीं कहे जायेंगे । तप, युक्ति और आगम से अयुक्त हैं। तथा तप प्रायः अशुभ ध्यान उत्पन्न करने वाला होने से आत्मा का अनर्थ करनेवाला हैं, इससे विद्वानों को तप का त्याग करना चाहिए । मनइन्द्रिययोगाना - महानिश्चोदिता जिनैः । यतोऽत्र तत् कथं त्वस्य युक्ता स्याद् दुःखरूपता ॥५॥ अर्थ – मन, इंद्रिय और (संयम के ) योगों को हानि न पहुँचे, इस प्रकार तप करना चाहिए ऐसा जिनेश्वरों ने कहा हैं। इससे तप दुःखरूप हैं, यह किस प्रकार योग्य कहा जा सकता हैं? अर्थात् नहीं कहा जा सकता । चापि चानशनादिभ्यः, कायपीडा मनाक् क्वचित् । व्याधिक्रियासमा सापि, नेष्टसिद्ध्याऽत्र बाधनी ॥ ६ ॥ अर्थ- कभी अनशन आदि से होनीवाली सामान्य कायपीड़ा बाधक नहीं होती, अर्थात् शरीर में दुःख का अनुभव होता हैं किन्तु मन में जरा भी दुःख का अनुभव नहीं होता । कारण कि पीड़ा से इष्ट कार्य की सिद्धि होती हैं । अनशन आदि तप से होनेवाली कायपीड़ा व्याधि की चिकित्सा के समान हैं । रोग की चिकित्सा करने पर देह

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