Book Title: Ashtak Prakaran
Author(s): Haribhadrasuri, 
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 66
________________ श्री अष्टक प्रकरण २१. अथ सूक्ष्मबुद्ध्यष्टकम् सूक्ष्मबुद्ध्या सदा ज्ञेयो, धर्मो धर्मार्थिभिनरैः । अन्यथा धर्मबुद्ध्यैव, तद्विघातः प्रसज्यते ॥१॥ अर्थ - धर्म के अर्थी मनुष्य को धर्म सदा सूक्ष्मबुद्धि से जानना चाहिए । अन्यथा धर्मबुद्धि से - धर्म के आशय से भी धर्म का व्याघात - नाश होता हैं । गृहीत्वा ग्लानभैषज्य - प्रदानाभिग्रहं यथा । तदप्राप्तौ तदन्तेऽस्य, शोकं समुपगच्छतः ॥२॥ अर्थ - जैसे - ग्लान को औषध देने का अभिग्रह लेने के बाद, अभिग्रह का काल पूर्ण होने तक, कोई भी साधु ग्लान न होने से औषध देने का अवसर न आने के कारण शोक करनेवाले को धर्म के आशय से अधर्म होता हैं। गृहीतोऽभिग्रहः श्रेष्ठो, ग्लानो जातो न च क्वचित् । अहो मेऽधन्यता कष्टं, न सिद्धमभिवाञ्छितम् ॥३॥ अर्थ - मैंने श्रेष्ठ अभिग्रह तो ग्रहण किया, किन्तु कोई भी साधु कभी भी बीमार नहीं हुआ ! अरे ! रे ! मैं अधन्य हूँ ! अफसोस की बात हैं कि मेरा इष्ट कार्य सिद्ध नहीं हुआ ! एवं ह्येतत्समादानं, ग्लानभावाभिसन्धिमत् । साधूनां तत्त्वतो यत् तत्, दुष्टं ज्ञेयं महात्मभिः ॥४॥ अर्थ - इस प्रकार अभिग्रह का स्वीकार करनेवाले

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