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श्री अष्टक प्रकरण
१३. अथ धर्मवादाष्टकम्
विषयो धर्मवादस्य, तत्ततन्त्रव्यपेक्षया । प्रस्तुतार्थोपयोग्येव, धर्मसाधन-लक्षणः ॥१॥
अर्थ - प्रतिवादी के द्वारा स्वीकार किये हुए उन-उन दर्शनों की अपेक्षा से मोक्ष पुरुषार्थ में उपयोगी धर्म - साधन ही धर्मवाद का विषय हैं, अर्थात् धर्म साधनों का ही वाद करना चाहिए ।
पञ्चैतानि पवित्राणि, सर्वेषां धर्मचारिणाम् । अहिंसा सत्यमस्तेयं, त्यागो मैथुनवर्जनम् ॥२॥
अर्थ - अहिंसा, सत्य, अस्तेय ( अचौर्य), ब्रह्मचर्य, परिग्रह और त्याग ये पाँच जैन, सांख्य, बौद्ध आदि प्रत्येक धार्मिकों के पवित्र धर्मसाधन (धर्म के हेतु) हैं
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क्व खल्वेतानि युज्यन्ते, मुख्यवृत्त्या क्व वा न हि । तन्त्रे तत्तन्त्रनीत्यैव, विचार्यं तत्त्वतो ह्यदः ॥३॥ अर्थ - धर्मार्थी के द्वारा ये पाँच धर्मसाधन परमार्थ से किसके दर्शन में पाए जाते हैं और किसके दर्शन में नहीं पाए जाते हैं, यही विचार तात्त्विक रीति से करना चाहिए । यह विचार बौद्ध आदि जिस दर्शन के संबंध में करना हो उसी दर्शन की नीति - आत्मा आदि पदार्थ नित्य हैं अथवा अनित्य इत्यादि व्यवस्था (सिद्धांत) के अनुसार ही करना चाहिए ।