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श्री अष्टक प्रकरण उनकी दृष्टि से यहाँ भी उसकी वैराग्य में गणना की गई हैं।
एको नित्यस्तथाऽबद्धः क्षय्यसन्वेह सर्वथा । आत्मेति निश्चयाद् भूयो, भवनैर्गुण्यदर्शनात् ॥४॥ तत्त्यागायोपशान्तस्य, सद्वृत्तस्यापि भावतः । वैराग्यं तद्गतं यत्तन्मोहगर्भमुदाहृतम् ॥५॥
अर्थ – बारबार संसार की असारता देखने से संसार के विच्छेद के लिए उपशांत (कषाय और इंद्रिय के निग्रह से युक्त) बने हुए और सद्भाव से स्वमान्य सिद्धांत के अनुसार सुंदर आचरण करनेवाले जीव का भी संसार के ऊपर वैराग्य वह मोहगर्भित वैराग्य है। इस जगत में निश्चय से आत्मा एक ही हैं, नित्य ही हैं, अबद्ध, एकांत से क्षणिक हैं, एकांत से असत् हैं, ऐसे अज्ञान से परिपूर्ण निर्णय के कारण मोहगर्भित कहा जाता हैं।
भूयांसो नामिनो बद्धा, बाह्येनेच्छादिना ह्यमी । आत्मानस्तद्वशात्कष्टं, भवे तिष्ठन्ति दारुणे ॥६॥ एवं विज्ञाय तत्त्याग-विधिस्त्यागश्च सर्वथा । वैराग्यमाहुः सज्ज्ञान-सङ्गतं तत्त्वदर्शिनः ॥७॥
अर्थ - जीव अनेक हैं और परिणामी हैं। ये जीव बाह्य इच्छा आदि के कारण कर्म से बंधे हुए हैं । अतः वे भयंकर संसार में दुःखी रहते हैं । इस प्रकार आत्मादि वस्तुओं के वास्तविक स्वरूप को जानकर, संसार के कारण, इच्छा