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प्रकाशक की ओर से
साहित्य, संस्कृति का प्रतीक होता है। वह किसी भी देश, समाज, जाति और धर्म के अभ्युत्थान अथवा पतन को बताने वाला दर्पण होता है । इस साहित्य-दर्पण में किसी भी देश या समाज की संस्कृति, सभ्यता, आचार-विचार, रहन-सहन आदि का प्रतिबिम्ब होता है। इसलिए किसी भी राष्ट्र या समाज के लिए उसके साहित्य का अत्यधिक महत्त्व होता है। दूसरे शब्दों में यों कहा जा सकता है कि साहित्य किसी भी राष्ट्र या समाज की अनमोल निधि-बहुमूल्य सम्पत्ति-हुआ करता है । जीवित जातियों और प्रगतिशील राष्ट्रों का साहित्य समृद्ध और समुन्नत होता है । वे अपने साहित्य के प्रति उदासीन नहीं रह सकते । जैनधर्म का विपुल साहित्य उसके प्राचीन गौरव का, उसके स्वर्णमय अतीत का और उसके महान अभ्युदय का सूचक है । इसके तत्त्वदर्शी, महामनीषी महर्षियों ने, समर्थ आचार्यों ने, प्रौढ़ विद्वानों ने और प्रखर साहित्यकारों ने अपनी सर्वतोमुखी प्रतिमा के द्वारा विश्व को विपुल साहित्य का अनमोल दान दिया। जैनधर्म और जैनसमाज के लिए यह महान् गौरव की वस्तु है।
जहाँ हम अपनी प्राचीन साहित्य-सम्पत्ति पर गौरव का अनुभव करते हैं वहीं हमें आधुनिक जैनसमाज की साहित्य के प्रति की जाने वाली उपेक्षा के लिए खेद भी होता है। नवनिर्माण, नूतनसाहित्यसृजन और नवीन रचनाएँ तो दूर रहीं, प्राचीन साहित्य-सम्पत्ति की सुरक्षा और सुव्यवस्था भी नहीं हो पा रही है । ज्ञानपूजक समाज के लिए यह उपेक्षा शोचनीय है । ज्ञान का शास्त्र-वर्णित महत्त्व सुनते और जानते हुए भी उसके प्रति और उसके साधनों के प्रति हमारी इतनी अधिक उपेक्षा हमारे लिए शर्म की चीज है। यूरोपीय विद्वान हमारे साहित्य के सम्बन्ध में अन्वेषण करें, परिश्रम करें, उसे अपनी अपनी भाषा में अनूदित कर अपने देशवासियों को उसका रसास्वादन करावें तथा विश्व को उसकी सामग्री से चमत्कृत करें और हम हमारे ही साहित्य के प्रति बेदरकार बने रहें, क्या यह हमारे लिए लज्जास्पद नहीं है ? साहित्य के प्रति की जाने वाली उपेक्षा को छोड़कर, युग की दिशा का अवलोकन कर हमें हमारे प्राचीन साहित्य के प्रचार व प्रसार की ओर ध्यान देना चाहिए तथा तदनुकूल नवीन साहित्य की भी रचना की जानी चाहिए। ऐसा करने से हमारी संस्कृति का, वीतराग-वाणी का और हमारे माननीय-सिद्धान्तों का व्यापक प्रचार हो सकेगा।
वीतराग-वाणी का व्यापक प्रचार हो, जैनसिद्धान्तों के सम्बन्ध में फैले हुए भ्रम का निवारण हो, जनता जैनधर्म के मौलिक सिद्धान्तों से परिचित हो और समाज में ज्ञान की ज्योति का प्रसार हो इस उद्देश्य से साहित्य की दिशा में हमने एक छोटा-सा प्रयत्न किया है। शास्त्रविशारद पं. श्री किशनलालजी म. तथा प्रसिद्ववक्ता पं. मुनि श्री सौभाग्यमलजी म. के उज्जैन चातुर्मास में "श्री जैन साहित्य समिति" की स्थापना की गई। इस समिति की ओर से सर्वप्रथम आचाराग-सूत्र जैसे महान भागम-ग्रन्थ का अनुवादित और सम्पादित प्रस्तुत संस्करण प्रकाशित करते हुए हमें अपार हर्ष हो रहा है । हम हमारा अहोभाग्य समझते हैं कि इस संस्था के प्रारम्भ में ही हमें मंगलमय आगम-ग्रंथ के प्रकाशन का सु-अवसर प्राप्त हुश्रा है । इस ग्रन्थ की महत्ता और श्रेष्ठता, उपयोगिता और हितकारिता के सम्बन्ध में क्या लिखा जाय ! विद्वान् अनुवादक मुनि श्री ने तथा सम्पादक महोदय ने अपने वक्तव्य में इस विषय पर पर्याप्त प्रकाश डाला है। ऐसे उत्तम ग्रन्थ को सर्वसाधारण के लिए उपयोगी बनाने के लिए मुनि श्री ने जो परि
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