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सम्यग्दर्शन की विधि
भावार्थ :- ‘घट को छोड़कर पट को और पट को छोड़कर अन्य पदार्थ को जानते समय ज्ञान पर्यायार्थिक नय से अन्य रूप कहलाने पर भी उसके ज्ञानपन का उल्लंघन नहीं करता परन्तु सामान्यपने से (उस प्रतिबिम्ब को गौण करने पर जो भाव रहता है, उसे ही उसका सामान्य कहा जाता है। विशेष, सामान्य का ही बना हआ होता है। पर्याय रूप विशेष द्रव्य रूप सामान्य का ही बना हुआ होता है अर्थात् विशेष को = पर्याय को गौण करते ही सामान्य = द्रव्य की अनुभूति होती है) निरन्तर “तदेवेदं" - वह ही यह है। अर्थात् यह वही ज्ञान है कि जिसकी पहले वह पर्याय थी और अभी यह पर्याय है (अर्थात् ज्ञान ही = ज्ञान गुण ही उस पर्याय रूप में परिणमित हुआ है)। ऐसी प्रतीति होती है, इसलिये ज्ञानत्व सामान्य की अपेक्षा से ज्ञान नित्य है। जैसे कि-'
_श्लोक १११ : अन्वयार्थ :- ‘आम्रफल में रूप नाम का गुण परिणमन करते-करते हरित में से पीला हो जाता है तो क्या इतने में उसके वर्णपने का नाश हो जाता है ? अर्थात् नहीं होता। इसलिये वह वर्णपन नित्य है।' ऐसा है जैन सिद्धान्त का त्रिकाली ध्रुव।
भावार्थ :- ... सामान्य रूप से तो वर्णपन वही का वही है, वह (वर्ण सामान्यपन) कहीं नष्ट नहीं हो गया, इसलिये वर्ण सामान्य की अपेक्षा से वह वर्ण गुण नित्य ही है।' इस प्रकार सामान्य की अपेक्षा से उसे कूटस्थ अथवा अपरिणामी कहा जा सकता है, अन्यथा नहीं। अन्यथा मानने पर जैन सिद्धान्त के विरुद्ध अर्थात् अन्यमती मिथ्यात्व रूप परिणाम आयेगा जो अनन्त संसार का कारण बनेगा।
श्लोक ११२ : अन्वयार्थ :- ‘जैसे वस्तु (द्रव्य) परिणमनशील है, उसी प्रकार गुण भी परिणमनशील है (अन्यथा मानने से मिथ्यात्व का उदय समझना) इसलिये निश्चय से गुण के भी उत्पाद-व्यय दोनों होते हैं।'
भावार्थ :- ‘इसलिये जैसे द्रव्य, परिणमनशील है, वैसे द्रव्य से अभिन्न रहनेवाले गुण भी परिणमनशील हैं, और वे परिणमनशील होने से उनमें प्रति समय उत्पाद-व्यय (कोई न कोई कार्य) भी हुआ ही करता है; और इस युक्ति से गुणों में उत्पाद-व्यय होने से उसे अनित्य भी कहने में आता है, सारांश कि-'
श्लोक ११३ : अन्वयार्थ :- ‘इसलिये जैसे ज्ञान नाम का गुण सामान्य रूप से नित्य है तथा उसी प्रकार घट को छोड़कर पट को जानने पर, ज्ञान नष्ट और उत्पन्न रूप भी है अर्थात् अनित्य भी है।'