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सम्यग्दर्शन के लिये योग्यता
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* हमने अनादि से आज तक अनन्तों बार दीक्षा ग्रहण की, अनन्त बार व्रत-तप आदि किये,
अनन्तों बार ध्यान आदि किये, अनन्तों बार हमने “मैं आत्मा हूँ” या “मैं शुद्धात्मा हूँ" या “अहं ब्रह्मास्मि' या “तत्त्वमसि'' इत्यादि जाप किये या रट्टा लगाया; परन्तु सत्की प्राप्ति अर्थात् सम्यग्दर्शन की प्राप्ति नहीं हुई। क्योंकि यह सब हठयोग कहलाता है और वास्तव में सत्य धर्म पीछे कहे गये उपचार (राज योग) से सहज ही प्राप्त होता है, न कि हठ योग से। * हमने अनादि से धर्म को बाहर ही ढूँढ़ा ; मगर आत्मा का धर्म, आत्मा के बाहर कैसे हो
सकता है ? बाहर से हमको एक मात्र दिशा निर्देश ही मिल सकता है; परन्तु वह सम्यक् दिशा निर्देश प्राप्त करने के लिये हमारे पास खुला दिमाग, शास्त्रों का गहन अध्ययन, शास्त्रों से मात्र अपने आत्म कल्याण के लिये कार्यकारी बातें (मुझे अपनी आत्मा के निर्णय और आत्मा की अनुभूति के लिये जो आवश्यक हैं, वे बातें) ही ग्रहण करने का भाव रखना चाहिये परन्तु विवादास्पद बातें ग्रहण न करें। जिसका उत्तर सिर्फ केवली भगवान ही दे सकते हैं ऐसी विवादास्पद बातें ग्रहण न करके वैसी बातों के लिये मध्यस्थ भाव रखना और जैसा केवली भगवान ने देखा है, वैसा मुझे मान्य है, ऐसा भाव रखना, “सच्चा वही मेरा और अच्छा वही मेरा'' ऐसा भाव, सत्य का स्वीकार करने की तत्परता, उसके
अनुसार जीव की अपने आप को बदलने की तत्परता इत्यादि होना परम आवश्यक हैं। * जिन्होंने आत्मा का अनुभव किया है ऐसे सत्पुरुषों का योग और उनके प्रति अपना सर्वभाव
समर्पण आवश्यक है। क्योंकि उनके प्रति अपने सर्वभाव समर्पण से उनका दिया गया उपदेश हमारे जीवन में झट से परिणमता है, अर्थात् हमारे जीवन में त्वरा से धर्म के अनुकूल बदलाव
आता है। * मेरे साथ कभी भी अन्याय नहीं होता, अर्थात् मेरे साथ जो भी घटित होता है, वह निश्चय
से मेरे कर्मों का ही फल है, तब अन्याय की बात ही नहीं रहती, बल्कि मेरे साथ जो भी होता है, वही मेरे लिये न्याय संगत है। परन्तु इससे मुझे अन्य किसी के साथ अन्याय
करने का परवाना नहीं मिलता, यह समझना परम आवश्यक है। * आत्म प्राप्ति के लक्ष्य के साथ पीछे कहे अनुसार वैराग्य और उपशम होना अति
आवश्यक है। * सत्पुरुष, सत्संग और सत्शास्त्र का अध्ययन इत्यादि सत्य धर्म पाने के लिये पथ प्रदर्शक
का काम करते हैं।