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सम्यग्दर्शन की विधि
प्राप्ति से भी अधिक दर्लभ बताया है। परन्तु जब दःख गर्भित वैराग्य कालान्तर में अगर ज्ञान गर्भित वैराग्य में तब्दील हो जाता है, तब उस दुःख गर्भित वैराग्य को भी अच्छा कहा जा सकता है।
ज्ञान गर्भित वैराग्य संसार और सांसारिक सुखों के सच्चे स्वरूप को समझने के कारण आता है, उसे निर्वेद भी कहते हैं। ज्ञान गर्भित वैराग्य का एकमात्र लक्ष्य आत्म प्राप्ति का होता है, उसे संवेग भी कहते हैं। इसीलिये ज्ञानगर्भित वैराग्य ही मोक्षमार्ग के लिये कार्यकारी है, उचित और सराहनीय है। तात्पर्य यह है कि सभी मुमुक्षु जीवों को यह ज्ञान गर्भित वैराग्य की प्राप्ति हेतु ही पुरुषार्थ करना उचित है।
राग के भी दो प्रकार हैं, एक अप्रशस्त राग और दूसरा प्रशस्त राग। परन्तु ज्ञान गर्भित वैराग्यवाले जीवों के अभिप्राय में प्राय: दोनों का अभाव रहता है क्योंकि उनका एकमात्र लक्ष्य आत्म प्राप्ति ही होता है। लेकिन व्यवहार में वे बहुतांश धर्म क्रियाएँ करते रहते हैं क्योंकि वे नहीं चाहते कि उनको देखकर अन्य बाल जीव भी क्रिया रहित हो जाएँ।
अप्रशस्त राग में पाँच इन्द्रिय विषयों के प्रति आकर्षण होता है। जैसे कि मनपसन्द स्पर्श, रस, घ्राण, चक्षु और श्रवण इन्द्रियों के विषय में ही मन लगा रहना और उनमें से जो भी विषय प्राप्त हो, उसमें डूबे रहना, यही अभिप्राय बना रहता है। हम इस संसार में कई जीवों को विजातीय के (स्पर्श के) पीछे बर्बाद होते देख सकते हैं। कई जीवों को खाने के (रस के) पीछे बर्बाद होते देख सकते हैं। जैसे कि अभक्ष्य खाकर मरते अथवा बीमार होते देख सकते हैं। कई जीवों को जो खाद्य पदार्थ खाने की मनाही होती है, वही वे लोलुपता से खाकर बीमार होते हैं या फिर कभी मरते भी देखे जाते हैं। कई जीवों को सुगन्ध के पीछे अपना पूरा जीवन व्यतीत करते देख सकते हैं। कई जीवों को प्रकाश के पीछे अपना पूरा जीवन व्यतीत करते अथवा दिये से आकर्षित होकर उसी में अपने को समर्पित करते देख सकते हैं। कई जीवों को गीत-संगीत के पीछे अपना अमूल्य जीवन अपव्यय करते देख सकते हैं; ऐसे जीव धर्म के नाम पर भी अपनी इन्द्रियों के विषयों के प्रति ही अपने आकर्षण की पूर्ति भावना और भक्ति के नाम से गीत-संगीत में डूबे रहकर करते रहते हैं। इस तरह से वे अपने अमूल्य जीवन का अपव्यय करते देखे जाते हैं। अनादि से जीव मुख्य रूप से विजातीय के आकर्षण और विषय-कषायों में फँसने के कारण ही संसार में भटक रहा है।
प्रशस्त राग देव-गुरु-शास्त्र-धर्म के प्रति होता है। मगर उसे प्रशस्त तब कह सकते हैं, जब वह एकमात्र आत्म प्राप्ति के लक्ष्य में परिवर्तित हो, अन्यथा वह भी आगे चलकर अप्रशस्त रूप में ही तब्दीली पाता है।