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आचार्य अमृतचन्द्र कृत नियमसार टीका में सम्यग्दर्शन का विषय
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है-लक्ष्य में रहता है)। अपने से उत्पन्न ऐसे उस परमब्रह्मस्वरूप समयसार को-कि जिसे तू भज रहा है (यानि जिसमें तू “मैंपन' कर रहा है) उसे, हे भव्य शार्दूल! (भव्योत्तम) तू शीघ्र भज (मात्र उसी में उपयोग रख), तू वह है।'
आचार्य भगवन्त कहते हैं कि 'तू वह है' अर्थात् तू मात्र उसमें ही 'मैंपन' (एकत्व) कर, कि जो सम्यग्दर्शन का विषय (दृष्टि का विषय) है और उसका ही अनुभव होने से सम्यग्दर्शन प्रगट हो जाता है, इसलिये कहते हैं कि तू वह है, यही सम्यग्दर्शन की विधि है।
श्लोक २६ :- ‘जीवत्व क्वचित् सद्गुणों सहित विलसता है-दिखायी देता है, क्वचित् अशुद्ध रूप गुणों सहित विलसता है (अर्थात् कोई जीव प्रगट गुणों सहित जानने में आता है और किसी के गुण अशुद्ध रूप से परिणमित होने से वह अशुद्ध भासित होता है), क्वचित् सहज पर्यायों सहित विलसता है (अर्थात् कोई कार्य समयसार रूप परिणमित हुआ होता है) और क्वचित् अशुद्ध पर्यायों सहित विलसता है (अर्थात् कोई जीव संसार में अशुद्ध पर्यायों सहित परिणमित हुए ज्ञात होते हैं)। इन सबसे सहित होने पर भी (अर्थात् कोई प्रगट भाव शुद्ध रूप से है अथवा कोई प्रगट भाव अशुद्ध रूप होने पर भी) जो इन सबसे रहित है (अर्थात् जो शुद्ध, अशुद्ध भावों रूप बताये हुए समस्त विशेष भावों से रहित है अर्थात् औदयिक, औपशमिक, क्षायोपशमिक और क्षायिक भावों से रहित है) ऐसे इस जीवत्व को (अर्थात् परम पारिणामिक भाव रूप परिणमते शुद्धात्म रूप कारण समयसार को-कारण शुद्ध पर्याय को) में सकल अर्थ की सिद्धि के लिये सदा नमता हँ, भाता है। क्योंकि वह सम्यग्दर्शन का विषय (दृष्टि का विषय) है और इसीलिये उस भाव में ही 'मैंपन' करने से सम्यग्दर्शन प्रगट होता है कि जिससे मोक्ष यात्रा का प्रारम्भ होता है और काल से मोक्ष होते ही सकल अर्थ की सिद्धि होती है, ऐसा भाव इस गाथा में व्यक्त किया है।
श्लोक ३० :- ‘सकल मोहरागद्वेषवाला जो कोई पुरुष परम गुरु के चरण कमल युगल की सेवा के प्रसाद से (अर्थात् परम गुरु से तत्त्व समझकर)-निर्विकल्प सहज समयसार को (परम पारिणामिक भाव रूप कारण समयसार को) जानता है, वह पुरुष परमश्री रूपी सुन्दरी का प्रियकान्त होता है।' अर्थात् इस काल में इस निर्विकल्प सहज समयसार को जाननेवालों को परम गुरु कहा है, क्योंकि इस काल में सम्यग्दर्शनयुक्त जीव बहत ही अल्प होते हैं और ऐसे परम गुरु के कहे अनुसार निर्विकल्प सहज समयसार को जो जानता है अर्थात् अनुभव करता है, वह सम्यग्दर्शनयुक्त होकर नियम से मुक्त होता है।
श्लोक ३४ :- (हमारे आत्म स्वभाव में) विभाव असत् होने से (अर्थात् अभी भले हमारे