Book Title: Samyag Darshan Ki Vidhi
Author(s): Jayesh Mohanlal Sheth
Publisher: Shailendra Punamchand Shah

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Page 202
________________ 196 सम्यग्दर्शन की विधि ऐसे आत्मा की जो अनुभूति, वह शुद्ध नय है और वह अनुभूति आत्मा ही है, इस प्रकार आत्मा एक ही प्रकाशमान है....' __ श्लोक ११:- ‘जगत के प्राणियो! उस सम्यक् स्वभाव का अनुभव करो जहाँ ये बद्धस्पृष्ट आदि भाव (ऊपर कहे वे चार भाव) स्पष्ट रूप से उस स्वभाव के ऊपर तैरते हैं (अर्थात् वे भाव होते हैं तो आत्मा के परिणाम में ही अर्थात् आत्मा में ही) तो भी (वे परम पारिणामिक भाव में) प्रतिष्ठा को प्राप्त नहीं होते, क्योंकि द्रव्य स्वभाव (द्रव्य रूप आत्मा के 'स्व' का भावन रूप 'स्व'भाव) तो नित्य है (वैसे का वैसा ही होता है), एक रूप है (अनन्य रूप है, अभेद है, वहाँ कोई भेद नहीं) और ये भाव (अर्थात् कि अन्य चार भाव) अनित्य है, अनेक रूप है, पर्यायें (चार भाव रूप पर्यायें – विभाव भाव) द्रव्य स्वभाव में प्रवेश नहीं करती, ऊपर ही रहती हैं (वे चार भाव परम पारिणामिक भाव रूप द्रव्य स्वभाव में प्रवेश पाती ही नहीं क्योंकि परम पारिणामिक भाव रूप द्रव्य स्वभाव सामान्य भाव रूप है इसलिये उसमें विशेष भाव का तो अभाव ही होता है अर्थात् विशेष भाव द्रव्य स्वभाव में प्रवेश नहीं करते, ऊपर ही रहते हैं) यह शुद्ध स्वभाव ('स्व' के भावन रूप = परम पारिणामिक भाव) सर्व अवस्थाओं में प्रकाशमान है। (आत्मा में तीनों काल हैं इसलिये ही त्रिकाली शुद्ध भाव कहलाता है) ऐसे शुद्ध स्वभाव का, मोह रहित होकर जगत अनुभव करो, क्योंकि मोह कर्म के उदय से उत्पन्न मिथ्यात्व रूप अज्ञान जहाँ तक रहता है, वहाँ तक यह अनुभव यथार्थ नहीं होता।' श्लोक १२ :- ‘यदि कोई सुबुद्धि (अर्थात् जिसे तत्त्वों का निर्णय हुआ है, ऐसा कि जो सम्यग्दर्शन प्राप्ति की पूर्व की पर्यायों में स्थित है ऐसा) भूत, वर्तमान और भावी ऐसे तीनों काल के (कर्मों के) बन्ध को अपने आत्मा से तत्काल-शीघ्र भिन्न करके (अर्थात् कर्म रूपी पुद्गलों को अपने से भिन्न जानकर - जड़ जानकर अपने को चेतन रूप अनुभव कर) तथा उन कर्मों के उदय के निमित्त से हए मिथ्यात्व (अज्ञान) को अपने बल से (पुरुषार्थ से) रोककर अथवा नाश करके (ऊपर श्लोक ११ में बतलाये अनुसार चार भावों को गौण कर के, अपने को परम पारिणामिक भाव रूप अनुभवते ही मिथ्यात्व उपशम, क्षयोपशम अथवा क्षय को प्राप्त होता है अर्थात् अपने को त्रिकाली शुद्ध भाव रूप = परम पारिणामिक भाव रूप जानना/अनुभव करने रूप पुरुषार्थ करे अर्थात्) अन्तरंग में अभ्यास करे - देखे तो यह आत्मा अपने अनुभव से ही ज्ञात होने योग्य जिसकी प्रगट महिमा है, ऐसी व्यक्त (अनुभवगोचर) ध्रुव (निश्चल) शाश्वत नित्य कर्मकलंक कर्दम से रहित (परम पारिणामिक भाव रूप) ऐसी स्वयं स्तुति करने योग्य देव विराजमान है।'

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