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निमित्त-उपादान की स्पष्टता
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२० निमित्त-उपादान की स्पष्टता अब आगम भाषा से समझाते हैं कि सम्यग्दर्शन की प्राप्ति कब होती है? पंचाध्यायी उत्तरार्द्ध के श्लोक
श्लोक ३७८ : अन्वयार्थ :- ‘दैव (कर्म) योग से, कालादिक लब्धियों की प्राप्ति होने पर संसार-सागर (का किनारा) निकट आने पर अथवा भव्य भाव का विपाक होने पर जीव, सम्यग्दर्शन को प्राप्त करता है।'
यहाँ सम्यग्दर्शन के यथार्थ निमित्त का ज्ञान कराया है, अर्थात् कार्य रूप से तो उपादान स्वयं ही परिणमता है परन्तु तब यथार्थ निमित्त की उपस्थिति नियम से होती ही है। इसलिये कहा जा सकता है कि ‘कार्य निमित्त से तो होता ही नहीं परन्तु निमित्त के बिना भी होता ही नहीं'
और इसीलिये जिनागम में जीव को पतन के कारणभूत निमित्तों से दूर रहने का उपदेश स्थानस्थान पर दिया गया है और वह योग्य है। ___आचार्य अमृतचन्द्र कृत समयसार टीका श्लोक (सभी जगह पर समयसार श्लोक का उल्लेख आने पर यही समझाना है) २७८-२७९ : गाथार्थ :- 'जैसे स्फटिक मणि शुद्ध होने से (अर्थात् ज्ञानी जिसमें 'मैंपन' करता है वह शुद्धात्मा स्वयं शुद्ध होने से) रागादि रूप से (लालिमा आदि रूप से) अपने आप नहीं परिणमता (ज्ञानी स्वेच्छा से राग रूप नहीं परिणमता इच्छापूर्वक राग नहीं करता) परन्तु अन्य रक्त आदि द्रव्यों द्वारा वह रक्त (-लाल) आदि किया जाता है, उसी प्रकार ज्ञानी (शुद्धात्मा में ही मैंपन' करते हुए) अर्थात् आत्मा शुद्ध होने से (अर्थात् शुद्धात्मा स्वयं शुद्ध होने से) रागादि रूप अपने आप नहीं परिणमता परन्तु अन्य रागादि दोषों द्वारा (अर्थात् उसके योग्य ऐसे कर्म के उदय के निमित्त कारण) वह रागी आदि किया जाता है (अर्थात् वह अपनी कमज़ोरी के कारण रागी-द्वेषी होता है)।'
समयसार : श्लोक १७५ :- ‘सूर्यकान्त मणि की भाँति (अर्थात् जैसे सूर्यकान्त मणि स्वयं से ही अग्निरूप नहीं परिणमती, उसके अग्निरूप परिणमन में सूर्य का बिम्ब निमित्त है, उसी प्रकार) आत्मा स्वयं को रागादि का निमित्त कभी नहीं होता (अर्थात् शुद्धात्मा स्वयं शुद्ध होने से, रागादि रूप अपने आप कभी नहीं परिणमता), उसमें निमित्त परसंग ही (परद्रव्य का संग ही) है-ऐसा