Book Title: Samyag Darshan Ki Vidhi
Author(s): Jayesh Mohanlal Sheth
Publisher: Shailendra Punamchand Shah

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Page 191
________________ समयसार के अनुसार सम्यग्दर्शन का विषय जाने की सीढ़ी रूप से दर्शाया गया है क्योंकि स्थूल से ही सूक्ष्म में जाया जाता है। प्रगट से ही अप्रगट में जाया जाता है। व्यक्त से ही अव्यक्त में जाया जाता है, यही नियम है। क्योंकि ज्ञायक ही स्वयं जाननेवाला है। जानना और ज्ञायक (जाननेवाला) को अनन्यपना बताकर जानना (प्रतिबिम्ब) गौण करते ही ज्ञायक (जाननेवाला) ज्ञात होता है, इसलिये सीढ़ी रूप है। 185 66 भावार्थ में पण्डित जयचन्दजी बतलाते हैं कि ‘ज्ञायक' ऐसा नाम भी उसे (अर्थात् शुद्धात्मा को = दृष्टि के विषय को = परम पारिणामिक भाव रूप आत्मा को) ज्ञेय को जानने से दिया जाता है क्योंकि ज्ञेय का प्रतिबिम्ब जब झलकता है, तब ज्ञान में वैसा ही अनुभव में आता है, तथापि ज्ञेय कृत अशुद्धता उसे नहीं है क्योंकि जैसा ज्ञेय ज्ञान में प्रतिभासित हुआ, वैसा ज्ञायक का ही अनुभव करने पर (ज्ञेय को गौण करते ही वहाँ) ज्ञायक ही है। ‘यह मैं जाननेवाला हूँ, वह मैं ही हूँ, अन्य कोई नहीं।' ऐसा अपने को अपना अभेद रूप अनुभव हुआ, तब उस जानने रूप क्रिया का कर्ता स्वयं ही है और जिसे जाना, वह कर्म भी स्वयं ही है (यहाँ समझना यह है कि ‘आत्मा वास्तव में पर को नहीं जानता' ऐसी बातें करके आत्मा में जाने का रास्ता = सीढ़ी बन्द करके क्या मिलेगा ? मात्र भ्रम ही मिलेगा, क्योंकि पर को जानने का निषेध करने से जाननेवाले का ही निषेध होता है) ऐसा एक ज्ञायकपना मात्र (जाननेवाला) स्वयं शुद्ध है - यह शुद्ध नय का विषय है।” यहाँ समझना यह है कि प्रथम जो 'दृष्टि के विषय' के सम्बन्ध में बतलाया, वैसे पर्याय से रहित द्रव्य अर्थात् प्रतिबिम्ब से रहित अर्थात् प्रतिबिम्ब को गौण करते ही वहाँ जाननेवाले के रूप में ज्ञायक उपस्थित ही है, वही दृष्टि का विषय है। वही परम पारिणामिक भाव है, वही कारण शुद्ध पर्याय है, वही कारण शुद्ध परमात्मा है। वही समयसार रूप जीवराजा है अर्थात् यहाँ कुछ भी भौतिक छैनी की आवश्यकता नहीं है क्योंकि आत्मा अभेद-अखण्ड है। उसमें से कुछ भी निकले ऐसा नहीं है और यदि निकालने की कोशिश होगी तो आत्मा स्वयं ही निकल जायेगी अर्थात् आत्मा का ही लोप होगा और निकालनेवाला स्वयं आकाश के फूल की भाँति भ्रम में ही पड़ेगा। इसलिये यहाँ प्रज्ञा रूपी छैनी का उपयोग करके = कतक फल रूप बुद्धिपूर्वक उन प्रतिबिम्ब रूप अर्थात् उदय, क्षयोपशम रूप भावों को गौण करते ही वहाँ साक्षात् शुद्धात्म रूप परम पारिणामिक भाव हाज़िर ही है । यही सम्यग्दर्शन की विधि है, कि जो आचार्य भगवान ने और पण्डित जी ने गाथा ६ में बतलायी है। 66 पण्डितजी आगे बतलाते हैं कि :- '.... यहाँ ऐसा भी जानना कि जिनमत का कथन स्याद्वाद रूप है इसलिये अशुद्ध नय को सर्वथा असत्यार्थ नहीं मानना; (यहाँ समझना यह है कि

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