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सम्यग्दर्शन की विधि
श्लोक ७ में आचार्य भगवन्त गाथा १३ का ही भाव व्यक्त करते हैं कि नौ तत्त्व में व्याप्त ऐसी आत्म ज्योति (अर्थात् परम पारिणामिक भाव), नौ तत्त्वों को गौण करते ही एक अखण्ड आत्म ज्योति (अर्थात् परम पारिणामिक भाव ) प्राप्त होती है।
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गाथा १३ : गाथार्थ :- 'भूतार्थ नय से जाने हुए (अर्थात् अभेद ऐसे शुद्ध नय से जाने हुए) जीव, अजीव और पुण्य, पाप तथा आस्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध, और मोक्ष - ये नौ तत्त्व सम्यक् हैं।'
अर्थात् अभेद ऐसे शुद्ध नय से जो ऐसा जानता है कि यह सभी नौ तत्त्व रूप परिणमित जीव विशेष अपेक्षा से नौ तत्त्व रूप भासित होता है, परन्तु अभेद शुद्ध नय द्वारा ये नौ तत्त्व जिसके बने हुए हैं, वह एकमात्र सामान्य भाव रूप अर्थात् अभेद शुद्ध जीवत्व भाव रूप ‘शुद्धात्मा' ही है और इसी प्रकार जो नौ तत्त्व को जानता है, उसे ही सम्यग्दर्शन है अर्थात् वही सम्यक्त्व है; यह गाथा समयसार के सार रूप है। सर्व अधिकारों का उल्लेख इस गाथा में करके सर्व अधिकारों के सार रूप से सम्यग्दर्शन रूप आत्मा का स्वरूप समझाया है।
गाथा १३ : टीका :- ‘ये जीवादि नौ तत्त्व भूतार्थ नय से जाने हुए सम्यग्दर्शन ही हैं (यह नियम कहा)। (भूतार्थ नय से अर्थात् अभेद नय से = इन जीवादि नौ तत्त्वों रूप से आत्मा ही परिणमता है, इसलिये इन नौ तत्त्वों को गौण करते ही शुद्धात्मा की प्राप्ति होती है = सम्यग्दर्शन होता है) ; क्योंकि तीर्थ की ( व्यवहार धर्म की ) प्रवृत्ति के लिये अभूतार्थ (व्यवहार) नय से (ये नौ तत्त्व) कहने में आते हैं (अर्थात् जो जीव अपरम भाव में स्थित है - अज्ञानी है, उसे आग की भाषा में उदय-उपशम-क्षयोपशम- क्षायिक-पारिणामिक - ऐसे पाँच भाव रूप से प्ररूपित किया जाता है) ऐसे ये नौ तत्त्व - जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध और मोक्ष - उन में एकपना प्रगट करनेवाले भूतार्थ नय से एकपना प्राप्त करके (अर्थात् उन सभी तत्त्व रूप जो आत्मा परिणमित है, वह बाह्य निमित्त के भाव अथवा अभाव से परिणमित है, उन नौ तत्त्व रूप परिणमित ऐसी आत्मा में विशेष भावों को गौण करते ही, एक अभेद ऐसा सहज परिणमन रूप आत्मा जो कि परम पारिणामिक भाव रूप है = समयसार रूप है, वह प्राप्त होती है, उसे प्राप्त करते ही), शुद्ध नय रूप से स्थापित आत्मा की अनुभूति - कि जिसका लक्षण आत्मख्याति है - उस की प्राप्ति होती है (अर्थात् सम्यग्दर्शन रूप - समयसार रूप आत्मा की प्राप्ति होती है)। (अर्थात् शुद्ध नय से नौ तत्त्व को जानने से आत्मा की अनुभूति होती है, इस हेतु से यह नियम कहा)। वहाँ, विकारी होने योग्य (आत्मा) और विकार करनेवाला (कर्म) ये दोनों पुण्य