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सम्यग्दर्शन के लिये योग्यता
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___अप्रशस्त और प्रशस्त इन दोनों प्रकार के रागों के प्रति उदासीनता को वैराग्य कहा जाता है। उसमें ज्ञान गर्भित वैराग्य सम्यग्दर्शन और मोक्ष के लिये उत्तम और कार्यकारी है। अर्थात् जब तक बाह्य इन्द्रियों के विषयों के प्रति राग है, तब तक वह जीव नियम से बहिरात्मा है, तब तक वह जीव की दृष्टि अन्तर में आत्म प्राप्ति के लिये प्रयासरत ही नहीं होगी। इसीलिये ज्ञान गर्भित वैराग्य को ज्ञान का जनक कहा गया है।
वैराग्य का मानक/मापदण्ड है यह प्रश्न - हमें क्या पसन्द है। इस प्रश्न के उत्तर में जब तक सांसारिक वस्तु या सम्बन्ध या इच्छा या आकांक्षा है, तब तक आपका मुख संसार की
ओर समझना और उसकी निवृत्ति हेतु उस इच्छा आदि के मूल/जड़ तक जाकर उसे बारह भावना से निरस्त करना आवश्यक है। अर्थात् उस सांसारिक वस्तु या सम्बन्ध या इच्छा या आकांक्षा के पीछे का कारण खोजकर उस कारण की जड़ तक जाना आवश्यक है, पश्चात् उस कारण और जड़ का विश्लेषण निम्नलिखित बारह भावना/अनुप्रेक्षा के अनुसार करके उस के कारण और जड़ को नष्ट करना आवश्यक है; जिससे उस सांसारिक वस्तु या सम्बन्ध या इच्छा या आकांक्षा को नष्ट कर पाना सम्भव हो सकता है क्योंकि उसे दबाना नहीं है। उसे जड़ से ही निरस्त करना है। इस तरह से प्रत्येक सांसारिक वस्तु या सम्बन्ध या इच्छा या आकांक्षा के लिये करना आवश्यक है। उसे ही खरे अर्थ में साधना कहा जाता है, न कि साम्प्रदायिक क्रियाओं को। उसी साधना से उस ज्ञान गर्भित वैराग्य की प्राप्ति सम्भव हो सकती है जिससे सम्यग्दर्शन योग्य भूमिका प्राप्त होती है अर्थात् आध्यात्मिक योग्यता प्राप्त होती है।
आचार्य कुन्दकुन्द ने मोक्षपाहुड में बताया है कि - गाथा ६६ : अन्वयार्थ :- ‘जब तक मनुष्य इन्द्रियों के विषयों में अपने मन को जोड़े रखता है (अर्थात् मन में इन्द्रियों के विषयों के प्रति आदर भाव वर्तता है), तब तक आत्मा को नहीं जानता (क्योंकि उसका लक्ष्य विषय है, आत्मा नहीं; इसलिये ही हमने ऊपर बताया है कि 'मुझे क्या पसन्द है?' यह मुमुक्षु जीव को देखते रहना चाहिये और उससे अपनी योग्यता की खोज करते रहना चाहिये और यदि योग्यता न हो तो उसका पुरुषार्थ करना आवश्यक है) इसलिये विषयों से विरक्त चित्तवाले योगी-ध्यानीमुनि ही आत्मा को जानते हैं।' इस गाथा में आत्म प्राप्ति के लिये योग्यता बतलायी है।
ज्ञान गर्भित वैराग्य की प्राप्ति हेतु इस जगत की व्यवस्था को यथातथ्य समझकर संसार के हर एक जीव को पीछे कहे मैत्री आदि चार भाव में ही वर्गीकृत करना अन्यथा नहीं और संसार के हर एक प्रसंग में बारह भावना का यथायोग्य चिन्तवन करना चाहिये। और संसार के हर एक