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पंचाध्यायी पूर्वार्द्ध की वस्तु व्यवस्था दर्शाते श्लोक
से परिणत सत् जिस समय उत्पाद द्वारा लक्ष्यमान होता है, उस समय वस्तु को केवल उत्पाद मात्र कहने में आता है।'
भावार्थ :- ‘पदार्थ, अनन्त धर्मात्मक है, शब्द व नयात्मक ज्ञान के अंश द्वारा उसके सम्पूर्ण धर्म विषयभूत नहीं हो सकते इसलिये उन अनन्त धर्मों में जो ज्ञानांश या शब्द द्वारा जो कोई भी एक धर्म विषयभूत होता है, उस ज्ञानांश (प्रज्ञा = बुद्धि द्वारा) या शब्द द्वारा वस्तु उस समय केवल उसी धर्म रूप जानने में आती है या कहने में आती है। (जैसे कि आत्मा को ज्ञान मात्र कहने पर उसका मात्र ज्ञान गुण ही लक्ष्य में नहीं लेना है परन्तु पूर्ण वस्तु अर्थात् पूर्ण आत्मा ही ज्ञान मात्र कहने से ग्रहण करना) इस न्यायानुसार जिस समय में नवीन-नवीन रूप से परिणत सत् उत्पाद रूप, ज्ञान तथा शब्द द्वारा विवक्षित होता है, उस समय वह सत् केवल उत्पाद मात्र कहने में आता है।'
यहाँ कोई ऐसा कहे कि ध्रुव तो उत्पाद-व्यय से अलग होना ही चाहिये अथवा रखना ही चाहिये, द्रव्य को केवल उत्पाद मात्र कैसे कह सकते हैं? तो उत्तर यह है कि वस्तु के (सत् के) एक अंश को लक्ष्य में लेकर अर्थात् मुख्य करके कथन करने में आये तो बाक़ी के समस्त अंश उसमें ही अन्तर्गर्भित हो जाते हैं अर्थात् एक को मुख्य करने पर बाक़ी के सब अपने आप ही गौण हो जाते हैं और उस मुख्य अंश से ही पूर्ण वस्तु का व्यवहार होता है अर्थात् प्रतिपादन, प्रस्तुति होती है, वहाँ प्रतिपादन अन्य अंशों को छोड़कर एक अंश का नहीं होता परन्तु एक अंश को मुख्य और अन्य अंशों को गौण करके होता है और यही जैन सिद्धान्त की प्रतिपादन की शैली है, इसे ही स्याद्वाद कहा जाता है जो कि जैन सिद्धान्त का प्राण है।
___ श्लोक २२१ : अन्वयार्थ :- ‘अथवा जिस समय यहाँ व्यय रूप से परिणत वह सत् केवल व्यय द्वारा निश्चय रूप से लक्ष्यमान होता है, उस समय वही सत् निश्चय से केवल व्यय मात्र क्या नहीं होगा? अवश्य होगा।'
श्लोक २२२ : अन्वयार्थ :- ‘अथवा जिस समय ध्रौव्य रूप से परिणत सत् (केवल) ध्रौव्य द्वारा लक्ष्यमान होता है, उस समय उत्पाद-व्यय की भाँति वही का वही सत् ध्रौव्य मात्र है, ऐसा ही प्रतीत होता है।'
अर्थात् पूर्व में बताये अनुसार द्रव्यार्थिक चक्षुवाले को जहाँ प्रमाण रूप द्रव्य, मात्र सामान्य रूप ही ज्ञात होता है अर्थात् ध्रुव रूप ही ज्ञात होता है, वहाँ पर्यायार्थिक चक्षुवाले को वही प्रमाण रूप द्रव्य मात्र पर्याय रूप ही ज्ञात होता है अर्थात् उत्पाद-व्यय रूप ही ज्ञात होता है और प्रमाण