Book Title: Samyag Darshan Ki Vidhi
Author(s): Jayesh Mohanlal Sheth
Publisher: Shailendra Punamchand Shah

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Page 235
________________ नित्य चिन्तन कणिकाएँ लाता। इसी प्रकार दूसरे की निन्दा करने से उसके कर्म साफ़ होते हैं, जब कि मुझे कर्मों का बन्ध होता है। 229 • ईर्ष्या करना हो तो मात्र भगवान से ही करना अर्थात् भगवान बनने के लिये भगवान की ईर्ष्या करना, अन्यथा नहीं। इसके अतिरिक्त किसी से भी ईर्ष्या करने से अनन्त दुःख देनेवाले अनन्त कर्मों का बन्ध होता है और जीव वर्तमान में भी दुःखी रहता है। जागृति- हर समय रखना अथवा हर घण्टे अपने मन में परिणाम की जाँच करते रहना, मन का झुकाव किस ओर है, वह देखना और उस में आवश्यक सुधार करना । लक्ष्य एकमात्र आत्म प्राप्ति का ही रखना और वह भाव दृढ़ करते रहना । अनन्त काल तक रहने के दो ही स्थान हैं। एक सिद्ध अवस्था और दूसरा निगोद। पहले में अनन्त सुख है और दूसरे में अनन्त दुःख है। इसलिये अपने भविष्य को लक्ष्य में लेकर सभी जनों को अपने सारे प्रयत्न / पुरुषार्थ एकमात्र मोक्ष के लिए ही करना चाहिये। • जो होता है, वह अच्छे के लिए होता है - ऐसा मानना । ऐसा मानने से आर्त ध्यान और रौद्र ध्यान से बचा जा सकता है। अर्थात् नये कर्मों के आस्रव से बचा जा सकता है। मुझे किसका पक्ष-किसकी तरफ़दारी करना है? अर्थात् मुझे कौन सा सम्प्रदाय अथवा किस व्यक्ति विशेष का पक्ष करना है ? • प्रश्न : उत्तर :- मात्र अपना ही यानि अपनी आत्मा का ही पक्ष करते रहना क्योंकि उस में ही मेरा उद्धार है, अन्य किसी की तरफ़दारी नहीं, क्योंकि उस में मेरा उद्धार नहीं, नहीं और नहीं ही है, क्योंकि वह तो राग-द्वेष का कारण है। जब अपनी आत्मा का ही पक्ष लिया जाये, तब उस में सभी ज्ञानियों का पक्ष समाहित हो जाता है। जैनों को रात्रि में कोई भी कार्यक्रम - भोजन समारम्भ नहीं रखना चाहिये। किसी भी प्रसंग में फूल और पटाखे का उपयोग नहीं करना चाहिये । विवाह, यह साधक के लिये मजबूरी होती है, न कि महोत्सव। जो साधक पूर्ण ब्रह्मचर्य न पाल सकते हों, उनके लिये विवाह व्यवस्था का सहारा लेना योग्य है। इस से साधक अपना संसार, निर्विघ्नता से श्रावक धर्म के अनुसार व्यतीत कर सकेगा और अपनी मजबूरी भी योग्य मर्यादा सहित पूरी कर सकेगा। ऐसे मजबूरी वाले विवाह का महोत्सव नहीं होता क्योंकि कोई अपनी मजबूरी को उत्सव बनाकर, महोत्सव करते ज्ञात नहीं

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