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सम्यग्दर्शन के लिये योग्यता
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है, वैसे-वैसे आस्रव का अधिकाधिक निरोध होकर अधिकाधिक संवर होता जाता है यानि संवर के लिये सबसे पहले सम्यग्दर्शन प्राप्त करना आवश्यक है और सम्यग्दर्शन प्राप्ति हेतु पीछे कही गयी योग्यता करने का पुरुषार्थ करना अति आवश्यक है।
योग्यता के साथ अभ्यास रूप से और पाप से बचने के लिये एक मात्र आत्म प्राप्ति और आत्म रमणता के लक्ष्य से दस प्रकार के धर्म अपनी शक्ति अनुसार करना चाहिये। उससे पापासव कम होगा और संवर का अभ्यास होगा। जैसे कि उत्तम क्षमा से क्रोध कषाय का संवर होगा, उत्तम मार्दव से मान कषाय का संवर होगा, उत्तम आर्जव से माया कषाय का संवर होगा, उत्तम अकिंचन/सन्तोष से लोभ कषाय का संवर होगा, उत्तम शौच-सत्य-संयम-तप-त्याग-ब्रह्मचर्य से हिंसा, झूठ, अविरति, विषयों आदि का संवर होगा। हर एक आस्रव के लिये हमें यह भावना भानी है कि अब मुझे यह आस्रव कभी न हो यानि उसे सेवन करने का भाव कभी न हो यह संस्कार दृढ़ करने से मेरी संवर भावना सार्थक होती है। संवर ही सत्य धर्म का फल है, जिससे जीव कर्म के बन्ध का निरोध करके मोक्ष प्राप्त करता है; यही इस भावना का भी फल है। निर्जरा भावना :- सच्ची (कार्यकारी) निर्जरा की शुरुआत सम्यग्दर्शन से ही होती है, इसलिये उसके लक्ष्य से पापों का त्याग करके एक मात्र सच्ची निर्जरा के लक्ष्य से यथाशक्ति तप करना चाहिये।
निर्जरा दो प्रकार की होती है : १) अकाम निर्जरा और २) सकाम निर्जरा। अकाम निर्जरा हर एक जीव को अनादि से अपने आप होती रहती है। सकाम निर्जरा सम्यग्दर्शन सहित जीव को गुणश्रेणी रूप होती है, अन्य को बहुत पुरुषार्थ करने पर भी निर्जरा कम होती है। इसलिये सभी धर्मी जीवों को सर्वप्रथम एकमात्र आत्म प्राप्ति का ही लक्ष्य रखना चाहिए और उसके लिये पीछे बतलाये अनुसार योग्यता करने का पुरुषार्थ करना अति आवश्यक है।
योग्यता बनाने के लिये आत्म लक्ष्यपूर्वक शास्त्र को आईना समझकर स्वाध्याय करना चाहिये, ताकि अपने में शास्त्र अनुसार जो भी कमी है, उसे दूर किया जा सके। उससे उसका अभिप्राय भी सम्यक् हो सकता है, जिसके बगैर आत्मज्ञान सम्भव ही नहीं होता। इसलिये सारा पुरुषार्थ एकमात्र आत्म प्राप्ति हेतु तप, व्रत, बारह भावना, “धन्यवाद! स्वागतम् ! (Thank you! Welcome!)' का भाव इत्यादि स्वाध्यायरत रहने के लिये करना है ताकि जल्द ही आप निश्चय सम्यग्दर्शन पाकर सच्ची निर्जरा कर पायें। यही इस भावना का हेतु है।। लोक स्वरूप भावना :- प्रथम, लोक का स्वरूप जानना, पश्चात् चिन्तवन करना कि