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सम्यग्दर्शन की विधि
राग
पूर्व में बतलाये अनुसार गाथा - १६४-१६५ में भावास्रवों को जीव से अनन्य कहा है और इसलिये ‘जीव में किसी भी अपेक्षा से राग नहीं होता' जैसी प्ररूपणायें जिनमत बाह्य हैं) क्योंकि स्याद्वाद प्रमाण से शुद्धता और अशुद्धता दोनों वस्तु के धर्म हैं और वस्तु धर्म वस्तु का सत्त्व है (अर्थात् वह वस्तु ही है = आत्मा ही है) (यहाँ समझना यह है कि गाथा १६४-१६५ में बतलाये अनुसार -द्वेष रूप परिणाम होते तो आत्मा में ही हैं - आत्मा ही उनका रूप परिणमता है और उस परिणमन की उपस्थिति में भी राग-द्वेष को गौण करते ही उनमें छिपा हुआ परम पारिणामिक भाव रूप = समयसार रूप = कारण शुद्ध पर्याय रूप आत्मा हाज़िर ही है) ; अशुद्धता पर द्रव्य के संयोग से होती है, यही अन्तर है... अशुद्ध नय को असत्यार्थ कहने से ऐसा नहीं समझना कि आकाश के फूल की भाँति वह वस्तु धर्म सर्वथा ही नहीं है। (अर्थात् जैसा है वैसा समझना, अर्थात् वह है, परन्तु उसे गौण करते ही ज्ञायक हाज़िर ही है, अन्यथा) ऐसा सर्वथा एकान्त समझने से मिथ्यात्व है (यहाँ पण्डितजी ने एकान्त प्ररूपणा करते हुए लोगों को सावधान किया है) इसलिये स्याद्वाद की शरण लेकर शुद्ध नय का अवलम्बन करना (अर्थात् जीव को पाँच भाव रूप जानकर चार भावों को गौण करते ही सम्यक् एकान्त रूप शुद्ध निश्चय नय का विषय ऐसा शुद्धात्मा = परम पारिणामिक भाव प्रगट होता है कि जिसका अवलम्बन करना) चाहिये...."
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गाथा ७ : गाथार्थ :- “ज्ञानी को चारित्र, दर्शन, ज्ञान - ये तीन भाव व्यवहार से कहने में आते हैं (अर्थात् ज्ञानी को एकमात्र अभेद भाव रूप 'शुद्धात्मा' में ही 'मैंपन ' होने से, जो भी विशेष भाव हैं और जो भी भेद रूप भाव हैं, वे व्यवहार कहे जाते हैं); निश्चय से ज्ञान भी नहीं, चारित्र भी नहीं, दर्शन भी नहीं (अर्थात् निश्चय से कोई भेद शुद्धात्मा में नहीं, वह एक अभेद सामान्य भाव रूप होने से उसमें भेद रूप भाव और विशेष भाव, ये दोनों भाव नहीं हैं)। ज्ञानी तो एक शुद्ध ज्ञायक ही है।” अर्थात् शुद्ध निश्चय नय का विषय मात्र अभेद ऐसा शुद्धात्मा ही है। इसीलिये लोग जब हम से पूछते हैं कि आपने कारण शुद्ध पर्याय को अभेद कैसे लिया अर्थात् जो परम पारिणामिक भाव है, उसी को कारण शुद्ध पर्याय क्यों कहा? दूसरा, यह भी पूछते हैं कि आपने सम्यग्दर्शन के विषय में प्रमाण का द्रव्य क्यों लिया है? और पर्याय का निषेध क्यों नहीं किया है? तब उनको हम उत्तर देते हैं कि निश्चय से आत्मा अभेद-एक है, उसमें जो भी भेद किये हैं, वे सिर्फ़ समझाने के लिये ही किये हैं न कि वास्तविक, इसलिये ज्ञानी को अनुभव के समय में कोई भेद नहीं; इस कारण से वे अभेद ऐसे एक आत्मा के ही अलग-अलग नाम होने से परम पारिणामिक भाव को ही कारण शुद्ध पर्याय या कारण शुद्ध परमात्मा कहा है। दूसरा, निश्चय से आत्मा अभेद-एक होने से उसमें जो भी भेद किये जाते हैं, वे सिर्फ़ समझाने के लिये