Book Title: Samyag Darshan Ki Vidhi
Author(s): Jayesh Mohanlal Sheth
Publisher: Shailendra Punamchand Shah

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Page 223
________________ समयसार के परिशिष्ट में से अनेकान्त का स्वरूप 217 ३८ समयसार के परिशिष्ट में से अनेकान्त का स्वरूप वस्तु का स्वरूप अनेकान्तमय है और वह जैसा है वैसा ही' समझना अत्यन्त आवश्यक है, अन्यथा मिथ्यात्व का नाश शक्य ही नहीं। अनेकान्त का स्वरूप समयसार के परिशिष्ट में बतलाया है, उस में से आवश्यक अंशो पर थोड़ा सा प्रकाश डालते हैं। श्लोक २४७ (के बाद की टीका) :- ".....और जब वह ज्ञान मात्र भाव एक ज्ञानआकार का ग्रहण करने के लिये अनेक ज्ञेयाकारों के त्याग द्वारा अपना नाश करता है (यानि परम पारिणामिक भाव की अनुभूति के लिये अर्थात् सम्यग्दर्शन प्राप्त करने के लिये ‘जीव वास्तव में पर को नहीं जानता' ऐसी प्ररूपणा करके ज्ञान में जो अनेक ज्ञेयों के आकार होते हैं, उनका त्याग करके अपने को नष्ट करता है अर्थात् ज्ञेयों के त्याग में ज्ञान सामान्य अर्थात् परमपारिणामिक भाव नष्ट होता है अर्थात् ‘आत्मा वास्तव में पर को नहीं जानती' ऐसा कहने से ज्ञान के नाश का प्रसंग आता है। यही बात अपेक्षा लगाकर कही जाये तो समझी जा सकती है परन्तु यह बात एकान्त से सत्य नहीं है।) तब पर्यायों से अनेकपना प्रकाशित करता हआ अनेकान्त ही उसे अपना नाश नहीं करने देता (मतलब अनेकान्त ही बलवान है कि जिसके कारण आत्मा का स्व-पर प्रकाशकपना स्वभाविक है।) ४.....जब यह ज्ञान मात्र भाव जानने में आते हुए ऐसे पर द्रव्यों के परिणमन के कारण ज्ञातृ द्रव्य को पर द्रव्य रूप मानकर - अंगीकार कर के नाश को प्राप्त होता है, (मतलब आत्मा वास्तव में पर को जानती है परन्तु पर को जानने रूप वह जब स्वयं परिणमती है, तब उसे पर द्रव्य रूप मान कर, स्वयं नाश को प्राप्त होती है यानि मिथ्यात्व पुष्ट करती है), तब (उस ज्ञान मात्र भाव का अर्थात् ज्ञेयों को) स्वद्रव्य से सत्पना प्रकाशित करता हुआ अनेकान्त ही उसे जिलाता है - नाश को प्राप्त नहीं होने देता। ५....जब यह ज्ञान मात्र भाव अनित्य ज्ञान विशेषों द्वारा (पर को जानने रूप परिणमकर) अपना नित्य ज्ञान सामान्य खण्डित हुआ मानकर नाश को प्राप्त होता है, तब (उस ज्ञान मात्र भाव का) ज्ञान सामान्य रूप से नित्यपना प्रकाशित करता हुआ अनेकान्त ही उसे जिलाता है-नाश को प्राप्त नहीं होने देता। (मतलब जो ऐसा मानते हैं कि 'आत्मा वास्तव में पर को नहीं जानती, ऐसा मानने से ही सम्यग्दर्शन होता है' वे भ्रमित हैं क्योंकि पर का जानना या जनवाना कभी भी सम्यग्दर्शन के लिये बाधाकारक नहीं होता, क्योंकि- उस पर के जानने के परिणमन रूप अपने विशेष आकारों को गौण करते

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