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सम्यग्दर्शन की विधि
२९ आचार्य अमृतचन्द्र कृत नियमसार टीका में सम्यग्दर्शन का विषय
अब हम श्री नियमसार शास्त्र से जानेंगे कि सम्यग्दर्शन का विषय (दृष्टि का विषय) क्या है और सम्यग्दृष्टि किसका वेदन करता है? वह किन भावों में रत होता है ? इत्यादि
श्लोक २२ :- ‘सहज ज्ञान रूपी साम्राज्य जिसका सर्वस्व है ऐसा शुद्ध चैतन्यमय अपनी आत्मा को जानकर (शुद्धद्रव्यार्थिक नय से अपने को शुद्धात्मा जानकर) मैं यह निर्विकल्प हूँ' यानि शुद्ध चैतन्यमय आत्मा, वही सम्यग्दर्शन का विषय (दृष्टि का विषय) है क्योंकि उसे भाते ही जीव निर्विकल्प होता है।
श्लोक २३ :- ‘दृशि ज्ञप्ति वृत्ति स्वरूप (दर्शन-ज्ञान-चारित्र रूप परिणमित) ऐसा जो एक ही चैतन्य सामान्य रूप (शुद्ध द्रव्यार्थिक नय के विषय रूप मात्र सामान्य जीव-शुद्धात्मापरमपारिणामिक भाव) निज आत्म तत्त्व, वह मोक्षेच्छुकों का (मोक्ष का) प्रसिद्ध मार्ग है; इस मार्ग के बिना मोक्ष नहीं है।'
यह सामान्य जीव मात्र जिसे सहज परिणामी अथवा तो परम पारिणामिक भाव रूप भी कहा जाता है, वही दृष्टि का विषय है। सम्यग्दर्शन का विषय है और उससे ही सम्यग्दर्शन होने पर उसे ही प्रसिद्ध मोक्ष का मार्ग कहा क्योंकि सम्यग्दर्शन से ही उस मार्ग में प्रवेश है।
श्लोक २४ :- ‘परभाव होने पर भी (विभाव रूप औदयिक भाव होने पर भी, उन औदयिक भाव को शुद्ध द्रव्यार्थिक नय से परभाव बतलाया है क्योंकि वे कर्मों यानि पर की अपेक्षा से = निमित्त से होते हैं), सहज गुणमणि की खान रूप और पूर्ण ज्ञानवाले शुद्धात्मा को (परम पारिणामिक भाव रूप शुद्धात्मा को) एक को जो (भेद ज्ञान को करके) तीक्ष्ण बुद्धिवाला शुद्ध दृष्टि (शुद्ध द्रव्यार्थिक चक्षु से) पुरुष भजता है (उस शुद्ध भाव में 'मैंपन' करता है), वह पुरुष मुक्ति को प्राप्त करता है' यानि जीव शुद्धात्मा में एकत्व करके सम्यग्दर्शन प्राप्त होने से मोक्षमार्ग में प्रवेश पाकर अवश्य मुक्ति को प्राप्त करता है।
श्लोक २५ :- ‘इस प्रकार पर-गुण पर्यायें होने पर भी (आत्मा औदयिक भाव रूप से परिणमता होने पर भी, यानि आत्मा अशुद्ध रूप से परिणमा होने पर भी) उत्तम पुरुषों के हृदयकमल में (मन में) कारण आत्मा विराजमान है (परम पारिणामिक भाव रूप कारण परमात्मा विराजता