Book Title: Samyag Darshan Ki Vidhi
Author(s): Jayesh Mohanlal Sheth
Publisher: Shailendra Punamchand Shah

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Page 224
________________ सम्यग्दर्शन की विधि ही समयसार रूप = परम पारिणामिक भाव की प्राप्ति होती है, सम्यग्दर्शन होता है अर्थात् वास्तव में तो ‘पर का जानना, वह स्व में जाने की सीढ़ी है' क्योंकि स्थूल से ही सूक्ष्म में जाया जाता है। प्रगट से ही अप्रगट में जाया जाता है। व्यक्त से ही अव्यक्त में जाया जाता है, यही नियम है)। १३.(यही भाव श्लोक १४३ में भी दर्शाया है कि सहज ज्ञान के परिणमन द्वारा यानी परम पारिणामिक भाव द्वारा यह ज्ञान मात्र पद = समयसार रूप आत्मा कर्म से वास्तव में व्याप्त है ही नहीं, कर्म से जीती जा सके ऐसी है ही नहीं; इसलिये निज ज्ञान की कला के बल से = मतिज्ञानादि रूप - ज्ञेयाकार रूप परिणमन से इस पद को = समयसार रूप पद को = परम पारिणामिक भाव रूप पद को अभ्यास करने का जगत सतत प्रयास करो । यहाँ आत्मा का पर का जानना जो है, उसे सीढ़ी रूप से = आलम्बन रूप से प्रयोग कर के समयसार रूप भगवान आत्मा की प्राप्ति के लिये प्रयास करने को कहा है)। 218 और, जब यह ज्ञान मात्र भाव नित्य ज्ञान सामान्य का ग्रहण करने के लिये (समयसार रूप परम पारिणामिक भाव के ग्रहण के लिये = सम्यग्दर्शन के लिये) अनित्य ज्ञान विशेषों के त्याग द्वारा अपना नाश करता है (ज्ञान के विशेषों का त्याग करते ही स्वयं अपने को नष्ट करता है)। तब (उस ज्ञान मात्र भाव का) ज्ञान विशेष रूपी अनित्यपना प्रकाशित करता हुआ अनेकान्त ही उसे अपना नाश नहीं करने देता (यानि ऐसा मानने पर कि 'आत्मा वास्तव में पर को जानती ही नहीं' तो ज्ञेयों के = अनित्य ज्ञान के विशेषों के त्याग द्वारा अपना ही नाश होता है। स्वयं भ्रम रूप परिणमता है, स्वयं मिथ्यात्व रूप परिणमता है। दूसरा, ज्ञान विशेष रूप पर्यायें यानि विभाव पर्यायों का त्याग करने पर ज्ञान का = अपना नाश होता है और स्वयं भ्रम में ही रहता है, इसलिये जिनागम में 'पर्याय रहित द्रव्य' के लिये ज्ञान विशेषों का त्याग नहीं यानि विभाव पर्यायों का त्याग नहीं परन्तु उन्हें गौण करने का ही विधान है जो कि अनेकान्त स्वरूप आत्मा का नाश नहीं होने देता, मिथ्यात्व रूप परिणमने नहीं देता ) । १४......" श्लोक २५० :‘पशु अर्थात् सर्वथा एकान्तवादी अज्ञानी, बाह्य पदार्थों को ग्रहण करने के (ज्ञान के) स्वभाव की अतिशयता के कारण (यहाँ बतलाया है कि आत्मा पर को जानती है, वह इसके स्वभाव की अतिशयता है), चारों ओर प्रगट होते अनेक प्रकार के ज्ञेयाकारों से जिसकी शक्ति विदीर्ण हो गयी है, ऐसा होकर समस्त रूप से टूट जाता हुआ (खण्ड-खण्ड अनेक रूप हो जाता हुआ यानि अज्ञानी को खण्ड-खण्ड रूप विशेष भावों में रहा हुआ ज्ञान सामान्य भाव ज्ञात नहीं होता = अखण्ड भाव ज्ञात नहीं होता इसलिये खण्ड-खण्ड रूप विशेष भावों का

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