Book Title: Samyag Darshan Ki Vidhi
Author(s): Jayesh Mohanlal Sheth
Publisher: Shailendra Punamchand Shah

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Page 187
________________ समयसार के अनुसार सम्यग्दर्शन का विषय 181 है) ऐसी प्रतीति की जाती है... मोह उसके उदय अनुसार प्रवृत्ति के आधीनपने से, दर्शन-ज्ञान स्वभाव में नियत वृत्ति रूप आत्म तत्त्व से (दृष्टि का विषय = कारण शुद्ध पर्याय = परम पारिणामिक भाव से) छूटकर पर द्रव्य के निमित्त से उत्पन्न मोह-राग-द्वेषादि भावों के साथ एकत्वगत रूप से (एकपना मानकर) (पाँच भाव रूप जीव में 'मैंपन' करके) वर्तता है तब... वह पर-समय है (अर्थात् मिथ्यात्वी ही है)।' गाथा ३ : गाथार्थ :- ‘एकत्व निश्चय को प्राप्त जो समय है (अर्थात् जिसने मात्र शुद्धात्मा में ही मैंपन' करके सम्यग्दर्शन प्राप्त किया है, वैसा आत्मा) इस लोक में सर्वत्र सुन्दर है (अर्थात् वैसा जीव भले नरक में हो या स्वर्ग में हो अर्थात् दुःख में हो या सुख में हो परन्तु वह सुन्दर अर्थात् स्व में स्थित है) इसलिये एकत्व में दूसरे के साथ बन्ध की कथा (अर्थात् बन्ध रूप विभाव भावों में 'मैंपन' करते ही मिथ्यात्व का उदय होने से) विसंवाद-विरोध करनेवाली (अर्थात् संसार में अनन्त दुःख रूप फल देनेवाली) है।' और दूसरे, जो आत्म द्रव्य अन्य कर्म-नोकर्म रूप पुद्गल द्रव्य के साथ बन्धकर रहा है उसमें विसंवाद है अर्थात् दुःख है, जब वही आत्म द्रव्य उस पुद्गल द्रव्य के साथ के बन्धन से मुक्त होता है, तब वह सुन्दर है अर्थात् आव्याबाध सुखी है। ___ गाथा ४ : गाथार्थ :- ‘सर्व लोक को काम-भोग सम्बन्धी बन्ध की कथा तो सुनने में आ गयी है (अर्थात् संसारी जन उसमें तो बहुत ही होशियार होते ही हैं), परिचय में आ गयी है और अनुभव में भी आ गयी है (अर्थात् दसरों को वैसा करते देखा है और स्वयं भी उस रूप परिणमकर अनुभव किया है) इसलिये सुलभ है (अर्थात् वह उसे बराबर समझते हैं और उसे ही एकमात्र जीव के लक्ष्य रूप मानकर, उसके पीछे ही दौड़ते हैं); परन्तु भिन्न आत्मा का (अर्थात् भेद ज्ञान से प्राप्त शुद्धात्मा का) एकपना होना कभी सुना नहीं (अर्थात् उसमें ही मैंपन' = एकत्व प्राप्त करने योग्य है, ऐसा कभी सुना ही नहीं), परिचय में आया नहीं (अर्थात् बात में अथवा पढ़ने में अथवा उपदेश में आया नहीं), और अनुभव में भी आया नहीं (इसलिये उसे अनुभव भी नहीं किया अर्थात् स्वात्मानुभूति भी नहीं हुई) इसलिये एक वह सुलभ नहीं है।' पाँच इन्द्रियों के जो विषय हैं, उनमें से शब्द और रूप को काम कहा जाता है तथा गन्ध, रस और स्पर्श को भोग कहा जाता है। पाँचों मिलकर काम-भोग कहलाते हैं, जिसके विषय में बहभाग लोगों को रस होने से (कि जिस में रस रखने योग्य नहीं है) उनकी कथा सुलभ है परन्तु इस काल में शुद्धात्मा की बात अति दुर्लभ है जो कि हम यहाँ (समयसार में) बतलानेवाले हैं, ऐसा भाव है आचार्य भगवन्त का इस गाथा में। वर्तमान के जैन सम्प्रदायों में प्रायः क्रिया को

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