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सम्यग्दर्शन की विधि
आत्मा में औदयिक भाव रूप विभाव हो, परन्तु वह क्षणिक है, वह तीनों काल रहनेवाला नहीं है, इसलिये असत् है) उसकी हमें चिन्ता नहीं है, हम तो हृदय कमल में स्थित (अर्थात् मन में जो शुद्ध द्रव्यार्थिक नय के विषय रूप सहज समयसार रूप मेरा स्वरूप है, उसमें स्थित), सर्व कर्म से विमुक्त, शुद्ध आत्मा का एक का सतत अनुभव करते हैं, क्योंकि अन्य किसी प्रकार से मुक्ति नहीं है, नहीं है, नहीं ही है।' अर्थात् अन्य कोई भाव उपादेय नहीं, अन्य कोई भाव भजने योग्य नहीं; एकमात्र शुद्धात्मा को भजते ही, अनुभव करते ही और उसमें ही स्थिरता करते ही, मुक्ति सहज ही है। अन्य किसी प्रकार से नहीं, नहीं, नहीं है (वज़न देने के लिये तीन बार 'नहीं' कहा है।)
___गाथा १९ : अन्वयार्थ :- 'द्रव्यार्थिक नय से जीव पूर्व कथित पर्यायों से व्यतिरिक्त (रहित) है; पर्याय नय से जीव उस पर्याय से संयुक्त है, इस प्रकार जीव दोनों नयों से संयुक्त है।'
अर्थात् एक ही संसारी जीव को देखने के = अनुभव करने के दृष्टि भेद से भेद है, उस जीव में कोई भाग शुद्ध अथवा कोई भाग अशुद्ध - ऐसा नहीं है परन्तु अपेक्षा से अर्थात् द्रव्य दृष्टि से अथवा पर्याय दृष्टि से वही जीव अनुक्रम से शुद्ध अथवा अशुद्ध भासित होता है; इसलिये यदि कुछ करना हो तो, वह मात्र दृष्टि बदलनी है, अन्य कुछ नहीं।
श्लोक ३६ :- ‘जो दो नयों के सम्बन्ध का उल्लंघन न करते हए (अर्थात् कोई भी बात अपेक्षा से समझनेवाले अर्थात् एकान्त से शुद्ध अथवा एकान्त से अशुद्ध कहनेवाले-माननेवाले, वे दोनों मिथ्यात्वी हैं जबकि अपेक्षा से शुद्ध और अपेक्षा से अशुद्ध माननेवाले-कहनेवाले नयों के सम्बन्ध को नहीं लांघते हुए जीव समझना) परम जिन के चरणों में अनुरक्त हुए भ्रमर समान है (अर्थात् ऐसे जीव परम जिन रूप ऐसे अपने शुद्धात्मा में-परम पारिणामिक भाव में-कारण समयसार में-कारण शुद्ध पर्याय में मत्त हैं) ऐसे जो सत्पुरुष हैं वे शीघ्र समयसार को (कार्य समयसार को)
अवश्य प्राप्त करते हैं। पृथ्वी पर मत के कथन से सज्जनों को क्या काम है (अर्थात् जगत के जैनेतर दर्शनों के मिथ्या कथनों से सज्जनों को क्या लाभ है?)' अर्थात् जो कोई दर्शन इस शुद्धात्म रूप कारण समयसार को अन्य किसी प्रकार से अर्थात् एकान्त से शुद्ध समझता है अथवा एकान्त से अशुद्ध समझता है, वह भी जैनेतर दर्शन ही है अर्थात् मिथ्यादर्शन ही है।
अब, आगे हम ध्यान के बारे में संक्षेप में बताते हैं।