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समयसार के अधिकारों का विहंगावलोकन
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योग्यता करने के लिये मन्द उद्यमी हैं और इसलिये वे विषय कषाय में बिना संकोच वर्तते हैं)।
(अब यथार्थ समझ युक्त जीव की बात करते हैं कि जो सम्यग्दृष्टि हैं) वे जीव विश्व के ऊपर तैरते हैं (यानि विश्व की अन्य किसी वस्तु में जिनका 'मैंपन' और 'मेरापना' नहीं, इसलिये उन में उन्हें कुछ भी लगाव नहीं। इसलिये वे जीव विश्व के ऊपर तैरते हैं)। वे स्वयं निरन्तर ज्ञान रूप होते - परिणमते हुए (अपने को परम पारिणामिक भाव रूप अर्थात् सहज परिणमन रूप अर्थात् सामान्य ज्ञान रूप अनुभवते हुए) कर्म नहीं करते (यानि कोई भी कर्म अथवा उसके निमित्त से होते भाव में 'मैंपन' और 'मेरापना' नहीं करते, कर्ता बुद्धि पोषित नहीं करते) और कभी प्रमाद के वश भी नहीं होते (यानि बुद्धिपूर्वक स्व में रहने का सतत् पुरुषार्थ करते हैं)।'
४. आस्रव अधिकार :- इस अधिकार में भी सम्यग्दर्शन प्राप्त कराने के लिये, भेद ज्ञान कराने के लिये, जो सम्यग्दर्शन का विषय (दृष्टि का विषय) है यानि जो शुद्धात्मा है, उसमें आस्रव रूप भाव न होने से यानि उसमें सर्व विभाव भाव का अभाव होने से कहा है कि ज्ञानी को आस्रव नहीं है। यानि ज्ञानी को आस्रव भाव रूप जो अपना परिणमन है, उसमें 'मैंपन' नहीं होता और उसमें कर्तापना भी नहीं है क्योंकि ज्ञानी उस भाव रूप स्वेच्छा से नहीं करता परन्तु मजबूरी या कमज़ोरी के कारण परिणमता है। इसलिये उसका कर्तापना नहीं माना जाता है।
ज्ञानी को अल्प आस्रव होता अवश्य है, परन्तु ज्ञानी को अनन्तानबन्धी कषायें और मिथ्यात्व का आस्रव न होने से ज्ञानी को आस्रव नहीं है, ऐसा कहा है। परन्तु यदि कोई इस बात को एकान्त से ग्रहण करके स्वच्छन्दता से आस्रव भावों का सेवन करे अथवा कोई अपने को ज्ञानी समझकर स्वच्छन्दता से आस्रव भावों का सेवन करे तो वह उसके महा अनर्थ का कारण है। यदि कोई इस प्रकार से एकान्त से समझकर इसी प्रकार एकान्त से प्रतिपादन करता हो तो वह स्वयं तो भ्रष्ट है ही और अन्य अनेकों को भ्रष्ट कर रहा है। जैन सिद्धान्त में विवेक की ही प्रधानता है। सारा कथन जिस अपेक्षा से कहा हो, उसी अपेक्षा से ग्रहण करना चाहिये। यही विवेक है। इसलिये सभी मोक्षार्थियों को पूर्व में बतलाये अनुसार एकमात्र आत्म प्राप्ति के लक्ष्य से नियम से आस्रव के कारणों से दूर ही रहना योग्य है, यही जिन सिद्धान्त का सार है।
श्लोक ११६ :- ‘आत्मा जब ज्ञानी होती है तब व्यक्ति स्वयं अपने समस्त बुद्धिपूर्वक राग को निरन्तर छोड़ता हुआ अर्थात् नहीं करता हुआ (यानि ज्ञानी को अभिप्राय में मात्र मुक्ति होने से किसी भी राग रूप परिणमित होने की अंश मात्र भी इच्छा नहीं होती) और जो अबुद्धिपूर्वक राग है, उसे भी जीतने को बारम्बार (ज्ञानानुभवन रूप) स्वशक्ति को स्पर्शता हुआ और (इस प्रकार