Book Title: Samyag Darshan Ki Vidhi
Author(s): Jayesh Mohanlal Sheth
Publisher: Shailendra Punamchand Shah

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Page 234
________________ 228 सम्यग्दर्शन की विधि निमित्तों से दूर ही रहना आवश्यक है। क्योंकि अच्छे से अच्छे भावों को बदल जाने में देरी नहीं लगती। दूसरे, यह सब निर्बल निमित्त अनन्त संसार अर्थात् अनन्त दुःख की प्राप्ति के कारण बनने में सक्षम हैं। - माता-पिता के उपकारों का बदला दूसरे किसी भी प्रकार से नहीं चुकाया जा सकता। एकमात्र उन्हें धर्म प्राप्त कराकर ही चुकाया जा सकता है। इसलिये माता-पिता की सेवा करना। माता-पिता का स्वभाव अनुकूल न हो तो भी उनकी सेवा पूरी-पूरी करना और उन्हें धर्म प्राप्त कराना, उसके लिये प्रथम स्वयं धर्म प्राप्त करना आवश्यक है। - धर्म लज्जित न हो, उसके लिए हम सभी को अपने कुटम्ब में, व्यवसाय में, दकान, ऑफ़िस इत्यादि में तथा समाज के साथ अपना व्यवहार अच्छा ही हो, इसका ध्यान रखना आवश्यक है। - अपेक्षा, आग्रह, आसक्ति, अहंकार निकाल देना अत्यन्त आवश्यक है। . स्वदोष देखो, परदोष नहीं; परगुण देखो और उन्हें ग्रहण करो, यह अत्यन्त आवश्यक है। अनादि से चली आ रही इन्द्रियों की गुलामी छोड़ने योग्य है। - जिन इन्द्रियों के विषयों में जितनी ज़्यादा आसक्ति, जिन इन्द्रियों का जितना दुरुपयोग ज़्यादा, उतनी वे इन्द्रियाँ भविष्य में अनन्त काल तक मिलने की सम्भावना कम। • मेरे ही क्रोध, मान, माया, लोभ मेरे कट्टर दुश्मन हैं, बाक़ी विश्व में मेरा कोई शत्रु ही नहीं है। . एक-एक कषाय अनन्त परावर्तन कराने में शक्तिमान है और मुझ में उन सभी कषायों का वास है तो मेरा क्या होगा? इसलिये शीघ्रता से सभी कषायों का नाश चाहना और उसका ही पुरुषार्थ करना। अहंकार और ममकार अनन्त संसार का कारण होने में सक्षम हैं; इसलिये उन से बचने का उपाय करना। . निन्दा मात्र अपनी करना अर्थात् अपने दर्गणों की ही करना, दसरों के दर्गण देखकर सर्व प्रथम स्वयं अपने भाव जाँचना और यदि वे दुर्गुण अपने में हों तो निकाल डालना और उनके प्रति उपेक्षा भाव अथवा करुणा भाव रखना क्योंकि दसरे की निन्दा से तो अपने को बहुत कर्म बन्ध होता है। कोई भी किसी दूसरे के घर का कचरा अपने घर में नहीं

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