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सम्यग्दर्शन की विधि
गर्भित हो जाते हैं और अपेक्षा अनुसार कोई एक ही (द्रव्यार्थिक नय या पर्यायार्थिक नय से) ज्ञात होते हैं, जबकि प्रमाण चक्षु से उभय अर्थात् दोनों ज्ञात होते हैं।
भावार्थ :- ‘वस्तु अन्वय-व्यतिरेकात्मक सिद्ध होने से जिस समय वस्तु विधि रूप कही जाती है, उस समय निषेध रूप विशेष धर्म गौण रूप से उस विधि में गर्भित हो जाता है (अर्थात् ध्रुव में पर्याय गर्भित हो जाती है। ऐसा समझना, तथा जिस समय वही वस्तु निषेध रूप से विवक्षित होती है, उस समय विधि रूप सामान्य भी उसी निषेध में गौण रूप से गर्भित हो जाता है (अर्थात् पर्याय में ध्रुव गर्भित हो जाता है-अर्थात् पर्याय ध्रुव की ही बनी है) ऐसा समझना, क्योंकि अस्तिनास्ति सर्वथा पृथक् नहीं परन्तु परस्पर सापेक्ष है। इसलिये विवक्षित की मुख्यता में अविवक्षित गौण रूप से गर्भित रहता है।'
जैन सिद्धान्त में अभाव करने की यह विधि मुख्य गौण रूप व्यवस्था है। इसलिये जिसे अन्य विधि का आग्रह है-पक्ष है, उसे नियम से मिथ्यात्वी जानना चाहिये। __श्लोक ३०७ : अन्वयार्थ :- 'सारांश यह है कि विधि ही स्वयं (अन्वय ही स्वयं, ध्रुव ही स्वयं, सामान्य ही स्वयं, द्रव्य ही स्वयं) युक्तिवशात् (अर्थात् पर्यायार्थिक नय से, पर्याय दृष्टि से, भेद दृष्टि से) निश्चय से (यहाँ याद रखना निश्चय से बतलाया है) निषेध रूप (अर्थात् व्यतिरेक रूप, उत्पाद-व्यय रूप, विशेष रूप, पर्याय रूप) हो जाता है तथा उसी तरह निषेध भी (अर्थात् व्यतिरेक रूप-उत्पाद-व्यय रूप-विशेष रूप-पर्याय रूप) स्वयं ही युक्तिवश से (अर्थात् द्रव्यार्थिक नय से, द्रव्य दृष्टि से, अभेद दृष्टि से) विधि रूप (अर्थात् अन्वय रूप, ध्रुव रूप, सामान्य रूप, द्रव्य रूप) हो जाता है।'
वस्तु व्यवस्था समझने के लिये अब इस गाथा से अधिक प्रमाण क्या चाहिये! यहाँ यही बतलाया है कि द्रव्य दृष्टि अथवा पर्याय दृष्टि अनुसार एक ही वस्तु क्रम से द्रव्य रूप (ध्रुव रूप) अथवा पर्याय रूप (उत्पाद रूप, व्यय रूप) ज्ञात होती है। वहाँ कोई क्षेत्र अपेक्षा से विभाग नहीं है। यही विधि है जैन सिद्धान्त की पर्याय रहित द्रव्य को देखने की, इसलिये ही आचार्य भगवान ने आगे के श्लोक में कहा है कि -
श्लोक ३०८ : अन्वयार्थ :- ‘इस प्रकार यहाँ तत्त्व को जाननेवाले कोई भी जैन तत्त्व ज्ञाता स्याद्वादी कहलाते हैं तथा इससे अन्यथा जाननेवाले सिंहमाणवक (बिल्ली को सिंह माननेवाले) कहलाते हैं।'
भावार्थ :- ‘इस प्रकार अनेकान्तात्मक तत्त्व को विवक्षावश विधि और निषेध रूप