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सम्यग्दर्शन के लिये योग्यता
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और खुले मन से आगे बढ़ते रहना चाहिये और अपने विचार-वाणी-वर्तन को बारीकी से देखते रहना चाहिये। उसमें क्या बदलाव आ रहा है, यह भी देखते रहना चाहिये। एकमात्र आत्म प्राप्ति के लक्ष्य से बारह भावना, चार भावना, “धन्यवाद! स्वागतम् ! (Thank you! Welcome!)" का भाव इत्यादि से मन में से संसार नाश करना है और यह देखते रहना है कि क्या अपनी इच्छाएँ कम हुईं ? क्या अपने राग-द्वेष कम हुए? यही धर्म स्वरूप भावना का फल है। हमने इसी प्रकार से सत्य की प्राप्ति और अनुभूति पायी है, इसलिये हम चाहते हैं कि आप भी इसी प्रकार से सत्य की प्राप्ति और अनुभूति करके सम्यग्दर्शन प्राप्त करें।
सत्य धर्म का स्वरूप क्या है? अर्थात् सत्य धर्म किसे कहते हैं और वह (सम्यग्दर्शन) कैसे पाया जा सकता है और उसके लिये क्या योग्यता होनी चाहिये इत्यादि के लिये ही यह पुस्तक लिखी है; अर्थात् इस भावना का महत्व अपूर्व है ऐसा समझकर जल्द ही सत्य धर्म (सम्यग्दर्शन) का स्वरूप समझकर और उसका अनुभव करके सम्यग्दर्शन प्राप्त करें, यही इस भावना का फल है।
___ उपरोक्त योग्यता के विषय के कुछ सर्वाधिक महत्वपूर्ण बिन्दु संक्षेप में मनन करने हेतु आगे प्रस्तुत करते हैं - * मैं यहाँ केवल देने के लिये आया हूँ, वह भी बिना शर्त और बिना किसी अपेक्षा के। * जो भी होता है, वह अच्छे के लिये ही होता है। * मुझे मेरा फ़र्ज़ पूर्ण रूप से अदा करना है, परन्तु अन्यों से ऐसी अपेक्षा नहीं रखनी है। * मुझे, अपने आप को बदलना है। यही एकमात्र धर्म की योग्यता पाने का पुरुषार्थ है; अन्यों
को बदलने का प्रयत्न व्यर्थ होता है। अन्यों को, उनके अच्छे के लिये प्रेरणा दे सकते __ हैं परन्तु दबाव कभी भी नहीं डालना है। * वर्तमान उदय को अर्थात् संयोग को बदलने का प्रयास न करके, उसको स्वीकार करने __ में ही समझदारी है, शान्ति है। * वर्तमान का स्वीकार करके अपना पुरुषार्थ एकमात्र आत्म प्राप्ति के लक्ष्य को प्राप्त करने हेतु
लगाना है। क्योंकि वर्तमान उदय अर्थात् संयोग अपने हाथ की बात नहीं रही परन्तु भविष्य अपने हाथ में है। हम अपने भविष्य को बना सकते हैं, इसलिये अपना पुरुषार्थ प्रतिक्रिया में न लगाकर हमने अपना पुरुषार्थ क्रिया में, अर्थात् भविष्य सँवारने में लगाना चाहिये। * मुझे सभी संयोग, कर्म (पुण्य/पाप) के अनुसार ही मिलनेवाले हैं और कर्म (पुण्य/पाप)
के अनुसार ही टिकनेवाले हैं।